आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का उदय होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएँ अधिक प्रमाणों पर आधारित की जा सकती हैं। यह जनपद चित्तौड़, अलवर, भरतपुर, जयपुर क्षेत्र में विस्तृत थे तथा यह क्रमशः शिवी, राजन्य, शाल्व एवं मत्स्य जनपद के नाम से जाने जाते थे।
महाजनपद काल में राजस्थान
कालांतर में महाजनपद का काल आया जिसमें राजस्थान के दो महत्त्वपपूर्ण महाजनपद का वर्णन मिलता है, जो निम्न थे- शुरसेन एवं कुरु जो क्रमशः भरतपुर, धौलपुर एवं अलवर क्षेत्र में विस्तृत थे। महाभारत युद्ध के बाद कुरु और यादव जन-पद निर्बल हो गये। महात्मा बुद्ध के समय से अवन्ति राज्य का विस्तार हो रहा था। समूचा पूर्वी राजस्थान तथा मालवा प्रदेश इसके अंतर्गत था। ऐसा लगता है कि शूरसेन और मत्स्य भी किसी न किसी रूप में अवंति के प्रभाव क्षेत्र में थे।
मत्स्य महाजनपद
- मत्स्य शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है जहां मत्स्य निवासियों को सुदास का शत्रु बताया गया है।
- मत्स्य जनपद आधुनिक जयपुर, अलवर, भरतपुर के मध्यवर्ती क्षेत्र में विस्तृत था।
- इसकी राजधानी विराटनगर थी।
कुरू महाजनपद
- राज्य में अलवर का उत्तरी भाग कुरु जनपद का हिस्सा था। इसकी राजधानी इन्द्रपथ थी।
शूरसेन महाजनपद
- इसका क्षेत्र वर्तमान पूर्वी अलवर,धौलपुर,भरतपुर तथा करौली था।
- इसकी राजधानी मथुरा थी।
- वासुदेव पुत्र कृष्ण का संबंध किस जनपद से था।
अवंती महाजनपद
- अवंति महाजनपद महत्व वर्तमान मध्य प्रदेश की सीमा में था परंतु सीमावर्ती राजस्थान का क्षेत्र इसके अंतर्गत आता था।
सिकंदर के आक्रमण के पश्चात्
सिकन्दर के अभियानों से आहत तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने को उत्सुक दक्षिण पंजाब की मालव, शिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं। इनमें भरतपुर का राजन्य और मत्स्य जनपद, नगरी का शिवि जनपद, अलवर का शाल्व जनपद प्रमुख हैं।
इसके अतिरिक्त 300 ई. पू. से 300 ई. के मध्य तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है। मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट था, कालान्तर में यह अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये। भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन अपनी विजयों के लिए प्रसिद्ध रहे हैं। इसी प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधेय भी एक शक्तिशाली गणतन्त्रीय कबीला था। यौधेय संभवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुये थे, जो रुद्रदामन के लेख से स्पष्ट है।
लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व से तीसरी सदी ईस्वी के काल में राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बौद्ध धर्म का काफी प्रचार था, परन्तु यौधेय तथा मालवों के यहाँ आने से ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के हास के चिह्न दिखाई देने लगे। गुप्त राजाओं ने इन जनपदीय गणतन्त्रों को समाप्त नहीं किया, परन्तु इन्हें अर्द्धआश्रित रूप में बनाए रखा। ये गणतन्त्र हूण आक्रमण के धक्के को सहन नहीं कर पाये और अन्ततः छठी शताब्दी आते-आते यहाँ से सदियों से पनपी गणतन्त्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गई।
यौद्धेय जनपद
- योद्धेय जनपद वर्तमान श्रीगंगानगर हनुमानगढ़ क्षेत्र में विस्तृत था।
राजन्य जनपद
- राजन्य जनपद वर्तमान भरतपुर क्षेत्र में विस्तृत था।
अर्जुनायन जनपद
- अर्जुनायन जनपद अलवर क्षेत्र में विस्तृत था।
शाल्व जनपद
- शाल्वजनपद अलवर क्षेत्र में विस्तृत था।
मालव जनपद
- मालव जनपद का समीकरण टोंक जिले में स्थित नगर या ककोर्टनगर से किया जाता है।
- मालवो में श्री सोम नामक राजा हुआ जिसने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया।
- ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतंत्र बने रहे।
- हमें राज्य में जिस जनपद के सर्वाधिक सिक्के अब तक प्राप्त हुए हैं वह मालवजनपद ही है। राज्य में मालवजनपद के सिक्के रैढ तथा नगर (टोंक) से प्रमुखता से मिले हैं।
- मालवो द्वारा 57 ईसवी पूर्व को मालव संवत के रूप में उपयोग किया गया। यह संवत पहले कृत फिर मालव और अंततः विक्रम संवत कहलाया।
शिवि जनपद
- मेवाड़ प्रदेश (चितौड़गढ) नामकरण की दृष्टि से द्वितीय शताब्दी में शिवजनपद (राजधानी माध्यमिका) के नाम से प्रसिद्ध था। बाद में ‘प्राग्वाट‘ नाम का प्रयोग हुआ। कालान्तर में इस भू भाग को ‘मेदपाट‘ नाम से सम्बोधित किया गया।
- राज्य में शिविजनपद के अधिकांश सिक्के नगरी क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं।
- इस जनपद का उल्लेख पाणिनी कृत अष्टाध्यायी से मिलता है।