पूरे देश में मनाए जाने वाले सभी पर्व, त्योहार आदि राजस्थान में भी उतने ही हर्षोल्लास से मनाए जाते हैं। होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस, नया साल, उत्तरायण, पोंगल, बैसाखी, गणेश चतुर्थी, जन्माष्ठमी, गुरु नानक जयन्ती, और इसी तरह के सारे ही पर्यों-त्योहारों को राजस्थान के निवासी भी उसी उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं जिस उल्लास के साथ देश के अन्य विभिन्न भागों के लोग मनाते हैं।
होली
त्योहारों में होली को राजस्थान में कुछ खास जगहों पर खास तरह से मनाया जाता है। उदाहरणार्थ प्रसिद्ध जैन तीर्थ स्थली श्रीमहावीर जी में लट्ठमार होली खेली जाती है। यहाँ महिलाएँ हाथों में लट्ट लेकर पुरुषों पर प्रहार करती हैं। इसी तरह शेखावाटी क्षेत्र में होली के अवसर पर गीन्दड़ नृत्य होता है। इस नृत्य में लोग विभिन्न वेश धारण करके हाथों में छोटे-छोटे डण्डे लेकर नृत्य करते हैं। बाड़मेर की पत्थर मार होली की भी विशेष ख्याति है। यहाँ इस मौके पर ईलोजी की बारात भी निकाली जाती है, जो बाद में रोने-बिलखने में परिवर्तित हो जाती है। इसी से लोगों का मनोरंजन होता है। मेवाड़ के अनेक अंचलों में होली के मौके पर गैर नृत्य किया जाता है। इसी के साथ कोटा क्षेत्र के सांगोद कस्बे का न्हाण भी बहुत विख्यात है। यह आयोजन दो सौ वर्ष पुराना माना जाता है।
गणगौर
फागुन और होली के बीतते-बीतते तथा चैत्र मास के आरम्भ होते ही पूरा राजस्थान गणगौर के रसीले गीतों से गूंजने लगता है। असल में तो इस उल्लास की शुरुआत होलिका दहन के दूसरे दिन से ही हो जाती है। गण+गौर अर्थात शिव और पार्वती की पूजा का यह पर्व अविवाहित युवतियों के लिए मनोवांछित और ईश्वर जैसा सुन्दर-सलोना वर दिलाने वाला और विवाहित महिलाओं के लिए उनके सुहाग की सुदीर्घता एवं उनके भाई की लम्बी उम्र को सुनिश्चित करने वाला माना जाता है। इस पर्व में महिलाएं अपने भाई के लिए सुन्दर पत्नी की भी कामना करती हैं। अविवाहित युवतियां इस त्योहार के दौरान पन्द्रह दिन तक एक समय भोजन करती या व्रत रखती हैं। व्रत होलिका दहन से आरम्भ होकर चैत्र शुक्ला एकम या कहीं-कहीं तृतीया तक चलता है। इस मौके पर होली की राख के पिण्ड बनाये जाते हैं और जौ के अंकुरों के साथ उनकी पूजा की जाती है। सभी स्त्रियाँ, चाहे वे विवाहित हों या अविवाहित, हाथों में मेंहदी लगाती हैं। ऐसा माना जाता है कि इस त्योहार का आरम्भ पार्वती जी यानि गौरी जी के गौने अर्थात अपने पिता के घर से वापस लौटने और सखियों द्वारा उनके स्वागत गान से हुआ था। यही कारण है कि इस पर्व के अवसर पर नृत्य संगीत को विशेष महत्व दिया जाता है।
गणगौर की पूजा के लिए ईसर जी और गौरी जी की प्रतिमाएं मिट्टी और लकड़ी से बनाई जाती हैं। उनका बहुत नयनाभिराम श्रंगार भी किया जाता है। महिलाएँ सोलह दिन तक गुलाल, कुंकुम और मेंहदी से दीवार पर एक-एक स्वास्तिक और सोलह बिन्दिया लगाकर गणगौर की पूजा करती हैं। सोलह दिन की पूजा सम्पन्न हो जाने पर ईसर जी और गौरा जी की मिट्टी की प्रतिमाओं को किसी नदी या सरोवर पर विसर्जित किया जाता है और काष्ठ प्रतिमाओं को घर लाकर पुनः स्थापित कर दिया जाता है।
इतिहास साक्षी है कि यह पर्व राजस्थान के जोधपुर, जयपुर, उदयपुर, कोटा आदि में बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता था और राजघराने के लोग भी इसमें पूरे उत्साह से भाग लेते थे। कर्नल टॉड ने उदयपुर में मनाए जाने वाले गणगौर पर्व का बहुत रोचक वर्णन किया है। वहाँ सभी जातियों की स्त्रियाँ अट्टालिकाओं में बैठकर तथा पुरुष और बच्चे रंग-रंगीले वस्त्र व आभूषणों से सज्जित होकर गणगौर की सवारी देखते थे। यह सवारी तोप के धमाके और नगाड़े की आवाज़ से राजमहलों से प्रारम्भ होकर पिछोला तालाब के गणगौर घाट तक पहुंचती थी और नौका विहार तथा आतिशबाजी के प्रदर्शन के साथ समाप्त होती थी।
तीज
वर्षा ऋतु वाले सावन के महीने में मनाया जाने वाला तीज का त्योहार राजस्थान का सबसे अधिक लोकप्रिय त्योहार है। शुष्क प्रदेश, मरु प्रदेश में इस उत्सव का मनाया जाना एक अलग ही महत्व रखता है। आकाश में छाई काली घटाओं के कारण कुछ जगहों पर इस त्योहार को काजळी तीज भी कहा जाता है। श्रावण के महीने में शुक्ल पक्ष की तृतीया को नवविवाहिताएँ पेड़ों पर झूले डालकर झूलती और पार्वती की प्रतीक तीज की पूजा करती हैं। वे एक दिन पहले अपने हाथों और पांवों पर मेंहदी लगाती हैं और दूसरे दिन अपने पिता के घर जाती हैं जहाँ उहें नई पोशाकें दी जाती हैं और स्वादिष्ट भोजन करवाया जाता है। हाथों में मेंहदी और पांच या सात रंगों वाली लहरिये की ओढनी तथा पारंपरिक गहनों से सजी महिलाएँ जब अपने सुहाग की दीर्घायु की कामना करती हैं तो देखते ही बनता है।
विवाह के बाद तीज पीहर में ही मनाने की प्रथा है। स्वाभाविक ही है कि नवविवाहिताएं इस त्योहार की उत्सुकता के साथ प्रतीक्षा करती हैं। कुछ लोकगीतों में यह भी उल्लेख मिलता है कि नवविवाहिता पत्नी दूर देश गए अपने पति से मिलने के लिए व्याकुल होकर तीज की रात को तड़प-तड़प कर गुज़ारती है। यह भी वर्णन मिलता है कि पति भी पत्नी से मिलने के लिए नदी-नालों को पार कर घर लौटता है।
इस त्योहार के अवसर पर पूरे राजस्थान में जगह-जगह झूले डाले जाते हैं और मेले लगते हैं। इस त्योहार के आस-पास ही खेतों में बुवाई भी शुरू होती है, मोठ, बाजरा आदि की बुवाई के लिए किसान वर्षा की महिमा गाते हैं। असल में तीज का यह त्योहार प्रकृति और मनुष्य की निकटता का अनुपम उदाहरण है।
राजस्थान की राजधानी जयपुर में तीज का यह त्योहार अतिरिक्त हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। कई लोकगीतों में भी स्त्रियों ने अपने प्रियतम से जयपुर की तीज दिखाने का अनुरोध कर यहाँ की तीज के आकर्षण की पुष्टि की है। अब तो पूरी दुनिया के पर्यटक जयपुर की तीज के उल्लास का आनन्द लेने आते हैं और यहाँ के आयोजन की सुखद स्मृतियों के साथ अपने देशों को लौटते हैं।
बून्दी की काजळी तीज
बून्दी में काजळी तीज का पर्व पूरे राजस्थान से कुछ भिन्न मनाया जाता है। अन्यत्र जहाँ यह पर्व श्रावणी तीज को मनाया जाता है, बून्दी में यह भाद्रपद की तृतीया को मनाया जाता है। उस दिन वहां नवल सागर से पालकी में आसीन करके तीज माता की सवारी निकाली जाती है और वह आकर्षक सवारी नगर के मुख्य बाज़ारों से होती हुई आज़ाद पार्क पहुंचती है। इस जुलूस में सजे-धजे हाथी, घोड़े, ऊंट, मधुर स्वर लहरियां बिखेरते बैण्ड, तरह तरह की कला का प्रदर्शन करते कलाकार और रंग बिरंगी वेशभूषा में सज्जित नागरिकगण एक अनूठे मायालोक का सृजन करते हैं। सायंकाल एक मनोहारी सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन होता है जिसमें हाड़ौती अंचल के कलाकार अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हैं।
शीतलाष्टमी
राजस्थान में शीतला माता को प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। होली के आठवें दिन अर्थात चैत्र कृष्णा अष्टमी को यह त्योहार मनाया जाता है। इस दिन ठंडा भोजन, अर्थात एक दिन पहले बनाया हुआ भोजन किया जाता है। खूब सारे पकवान बनाए जाते हैं और शीतला अष्टमी वाले दिन माता की पूजा करके उन्हें भोग लगाया जाता है। जयपुर से लगभग 35 किलोमीटर की दूरी पर चाकसू के निकट शील की डूंगरी स्थित शीतला माता के मंदिर में बहुत बड़ा मेला भरता है। इसके अतिरिक्त भी लगभग हर शहर-कस्बे-गांव में शीतला माता के मंदिरों में उनकी पूजा अर्चना की जाती है।
अक्षय तृतीया
इस दिन को बहुत शुभ माना जाता है और इसे अबूझ सावे का दिन कहा जाता है। अबूझ सावा, अर्थात बिना पण्डित जी से मुहूर्त निकलवाए जिस दिन विवाह सम्पन्न किया जा सके। आम जन इस पर्व को आखा तीज के नाम से जानता है। इस दिन गेहूं, बाजरा, तिल जौ आदि की पूजा की जाती है और गेहूं बाजरे आदि का खीच विशेष रूप से बनाया जाता है। यह दिन बीकानेर का स्थापना दिवस भी है अतः इसे वहाँ तो और भी अधिक उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस दिन हवा का रुख देखकर यह भी ज्ञात किया जाता है बोने वाला समय फसलों के लिहाज़ से कैसा रहेगा।