राजस्थान के प्रमुख मेले

पुष्कर मेला

अजमेर जिले का पुष्कर हिन्दू धर्मावलम्बियों की आस्था का एक प्रमुख केन्द्र है। कदाचित पूरे देश में यहीं ब्रह्माजी का एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें विधिवत उनकी पूजा होती है। इसी मंदिर के पीछे की पहाड़ियों पर सावित्री और गायत्री माता के मंदिर भी हैं। इसी तीर्थ स्थली पुष्कर में प्रति माह की पूर्णिमा को तो मेला लगता ही है किन्तु कार्तिक माह की पूर्णिमा का मेला अपनी विशालता के कारण अनुपम माना जाता है। यह मेला अष्टमी से पूर्णिमा तक चलता है। वैसे तो पूरे ही कार्तिक माह में पुष्कर तीर्थयात्रियों से भरा रहता है लेकिन कार्तिक पूर्णिमा पर तो यहां तिल धरने की भी जगह नहीं होती है। मेले के समय यहां सुबह 3-4 बजे से ही घाटों पर श्रद्धालुओं की भीड़ जुटने लगती है और पूरे दिन यह क्रम चलता रहता है। सायं यहां दीपदान भी होता है। मेला अवधि के पूर्वार्द्ध में पशु मेला और उत्तरार्द्ध में धार्मिक मेला प्रमुख होता है।

पौराणिक कथाओं के अनुसार ऐसा माना जाता है कि किसी समय पुष्कर में विजनाथ नामक राक्षस का आतंक हुआ करता था। कहा जाता है कि इस राक्षस ने ब्रह्मा जी की सन्तानों की भी हत्या कर दी थी। जब इस बात की जानकारी स्वयं ब्रह्मा जी को हुई तो उन्होंने प्रकट होकर कमल के पुष्प से राक्षस का संहार किया। कमल की पंखुड़ियां जिन तीन स्थानों पर गिरी वहां झीलें बन गई। माना जाता है कि पुष्कर उन्हीं तीन झीलों में से एक है। राक्षस के संहार के बाद ब्रह्मा जी ने इसी स्थान पर एक यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सभी देवी देवताओं और ऋषि मुनियों को भी आमंत्रित किया। वह यज्ञ कार्तिक मास में सम्पन्न हुआ था। इसीलिए कार्तिक मास में लगने वाले इस मेले को महत्वपूर्ण माना जाता है।

इस मेले के अवसर पर यहाँ बहुत विशाल बाजार भी लगता है और विदेशी पर्यटक भी खूब आते हैं। इसी मौके पर राज्य सरकार का पर्यटन विभाग भी अनेक प्रकार के आयोजन कर मेले की शोभा और आकर्षण में वृद्धि करता है।

कैलादेवी का मेला

सवाई माधोपुर से 18 किलोमीटर की दूरी पर स्थित कैलामाता के मंदिर में चैत्र शुक्ला अष्टमी को एक मेला भरता है। यह मेला कई दिनों तक चलता है। इस मेले में आने वाले भक्तों की विराट संख्या के कारण इसे लक्खी मेला भी कहते हैं। कैलामाता के मंदिर में दो मूर्तियां हैं। दाहिनी तरफ कैला देवी की मूर्ति है जिन्हें लक्ष्मी नाम से भी जाना जाता है और बायीं तरफ चामुंडा जी की मूर्ति है। कैलादेवी के मंदिर के सामने ही एक मंदिर हनुमान जी का भी है जिन्हें स्थानीय लोग लांगुरिया नाम से सम्बोधित करते हैं। चैत्र कृष्ण द्वादशी से चैत्र शुक्ला द्वादशी तक चलने वाले इस मेले में दूर-दूर से भक्त जन आते हैं। अनेक भक्त कनक दण्डौती भी करते हैं अर्थात वे मंदिर तक की 15-20 किलोमीटर की दूरी पैदल चल कर नहीं बल्कि धरती पर कैलादेवी के मेले के अवसर पर एक पशु दण्डवत करते हुए तय करते है। मेला भी आयोजित किया जाता है।

श्री महावीर जी का मेला

मान्यता हैं कि सवाई माधोपुर जिले में ही गंगापुर बयाना रेलमार्ग पर स्थित श्री महावीर जी का मंदिर भी वैसे तो पूरे ही वर्ष भक्तों की आमद से गुलज़ार रहता है लेकिन चैत्र शुक्ला एकादशी से लेकर वैशाख कृष्णा द्वितीया तक लगने वाला लक्खी मेला पूरे देश के भक्तों को आकृष्ट करता है। श्री महावीर जी में चौबीसवें जैन तीर्थकर महावीर स्वामी की एक लाल रंग की अनूठी और भव्य प्रतिमा है। मंदिर के सामने ही एक भव्य मान-स्तम्भ भी बना हुआ है। मेले के दौरान भगवान महावीर स्वामी की रथयात्रा निकाली जाती है। स्वर्णिम रथ पर आरूढ़ भगवान महावीर की प्रतिमा को एक भव्य जुलूस के रूप में कलश अभिषेक के लिए गम्भीरी नदी के तट पर ले जाया जाता है। चार भक्त प्रतिमा पर चंवर ढुलाते रहते हैं और पूरा वातावरण भक्ति संगीत और भगवान की जय-जयकार से गुंजायमान रहता है। मेले के मौके पर अनेक प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। मेले का शुभारंभ ध्वजारोहण के साथ होता है। इस मेले की खास बात यह है कि इसमें हर जाति, धर्म और सम्प्रदाय के लोग भाग लेते हैं।

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती का उर्स, अजमेर

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती साहब ईरान से भारत आए थे और अजमेर में ठहरे थे। अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा में अर्पित कर देने वाले ख्वाजा साहब को गरीब नवाज़ के नाम से भी जाना जाता है। अजमेर में उनकी मजार पूरी दुनिया के मुस्लिम धर्मावलम्बियों की आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र है। अन्य सभी धर्मों को मानने वाले भी बहुत बड़ी संख्या में ख्वाजा साहब में अपनी आस्था और श्रद्धा रखते हैं। इस्लामिक कैलेण्डर के रजब माह की पहली से छठी तारीख तक अजमेर में ख्वाजा साहब का उर्स मनाया जाता है। उर्स शब्द फारसी के उरुसी से व्युत्पन्न है और इसका अर्थ है लम्बे वियोग के बाद मिलन से होने वाली खुशी। यह माना जाता है कि निन्यानवें वर्ष की आयु में रजब की छह तारीख को हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती साहब ने महसूस किया था कि अब महबूबे हकीकी से मिलने का समय आ गया है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि ख्वाजा साहब पूरे छह दिन तक अपने हुजरे से बाहर नहीं आए तो खादिम भीतर गए और वहाँ जाकर उन्होंने पाया कि ख्वाजा साहब की रूह जिस्म से परवाज़ कर गई है। इसी की स्मृति में हर वर्ष उर्स मनाया जाता है। उर्स के दौरान ख्वाजा साहब के अकीदतमन्द हुजरे के दर्शन करते है और उनकी मजार पर फातिहा पढा जाता है। मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए मन्नतें मांगी जाती हैं और दुआएं की जाती हैं। इस उर्स के दौरान मजार पर चादर भी चढ़ाई जाती है, देश विदेश से आए श्रद्धालु भी अपने साथ लाई चादरें चढाते हैं। महफिलखाने में कव्वालियों का कार्यक्रम होता है जिसमें भाग लेना देश भर के उत्कृष्टतम कव्वालों का सपना होता है। उर्स का उत्सव चांद दिखाई देने पर दरगाह शरीफ के बुलन्द दरवाजे पर झण्डा फहराने के साथ प्रारम्भ होता है और रजब की छठी तारीख को जायरीनों पर गुलाब जल के छींटे मारे जाते हैं। इसे कुल की रस्म कहा जाता है। इसके तीन दिन बाद यानि नवीं तारीख को बड़े कुल की रस्म अदा की जाती है।

उर्स का यह मेला पूरे भारत में मुस्लिम समुदाय का कदाचित सबसे बड़ा मेला है और इसे सर्वधर्म समभाव की अनूठी मिसाल माना जाता है।

बेणेश्वर का मेला

बेणेश्वर का मेला राजस्थान के आदिवासी समाज का सबसे बड़ा मेला है। इस मेले में आदिवासी संस्कृति के तमाम रंग देखने को मिलते हैं। यह मेला माघ पूर्णिमा (शिवरात्रि) के अवसर पर डूंगरपुर जिले की आसपुर तहसील के नवातपुरा नामक स्थान पर आयोजित होता है। इसका केन्द्र वहां स्थित शिव मंदिर है। इस मंदिर में दिन में दो बार जयघोष के साथ पूजा होती है। इस शिव मंदिर में शिव लिंग स्थापित है। बेणेश्वर नाम भगवान शिव के इसी लिंग पर आधारित है। कहा जाता है कि यह लिंग स्वयं उद्भूत हुआ अतः इसे स्वयम्भू लिंग भी कहा जाता है। यह लिंग पांच स्थानों से खण्डित है।

गलियाकोट का उर्स मेला

डूंगरपुर जिले की सागवाड़ा तहसील के एक छोटे से कस्बे गलियाकोट में स्थित आदरणीय सन्त सैयद फखरुद्दीन की मज़ार, जिसे मज़ार-ए-फखरी के नाम से भी जाना जाता है, दाऊदी बोहरा सम्प्रदाय की आस्था का बहुत बड़ा केन्द्र है। वैसे तो इस मज़ार पर पूरे वर्ष भर ही देश-विदेश के श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है परन्तु मुहर्रम की 27 वीं तारीख को होने वाले उर्स के मौके पर तो यहाँ अलग ही माहौल होता है। उस दिन मज़ार शरीफ को पुष्पों से सजाया जाता है और दीप प्रज्वलित किए जाते हैं। सामूहिक इबादत होती है और कुरान शरीफ का पाठ किया जाता है। भक्त गण अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हो जाने पर कृतज्ञता ज्ञापन के लिए भी यहां आते हैं।

भर्तृहरि का मेला

अलवर से लगभग चालीस किलोमीटर दूर बाबा भर्तृहरि की समाधि है, जहाँ वर्ष में दो बार बैसाख और भाद्रपद में मेला लगता है। कहा जाता है कि राजा गोपीचन्द भर्तृहरि बहुत बड़े राजपाट के स्वामी थे। उनकी पत्नी रानी पिंगला अतीव सुन्दरी थी। किसी कारण राजा के मन में विरक्ति आ गई और उन्होंने अपना राजपाट त्याग कर सन्यास ले लिया। जगह-जगह विचरण करने वाले भर्तहरि बाबा को यह जंगल बहुत अच्छा लगा और वे मृत्यु पर्यन्त यहीं रहे। यहीं उनकी समाधि भी बनाई गई। तीन तरफ सुरम्य पहाड़ियों से घिरे इस स्थान पर एक झरना भी बहता है।

अपना नया काम शुरू करने और संकट निवारण के लिए श्रद्धालु बाबा का भण्डारा भी बोलते हैं। मेले के दौरान यहां कुम्भ मेले जैसा वातावरण बन जाता है।

डिग्गी के कल्याण जी का मेला

जयपुर से लगभग पिचहत्तर किलोमीटर दूर टोंक जिले की मालपुरा तहसील में स्थित डिग्गीपुरी में भगवान विष्णु के स्वरूप राजा कल्याण जी का मेला श्रावण माह की अमावस्या को लगता है। कल्याण जी के बहुत सारे भक्त अपनी मनोकामना पूर्ण होने की प्रार्थना के साथ जयपुर से डिग्गी तक की पैदल यात्रा भी करते हैं। डिग्गी कल्याण जी की बहुत अधिक मान्यता है और यह मान्यता प्रदेश की सीमाओं से बाहर बिहार, बंगाल और आसाम तक व्याप्त है।

बाबा रामदेव जी का मेला

जैसलमेर बीकानेर मार्ग पर जैसलमेर से 125 किलोमीटर दूर और जैसलमेर जिले के पोकरण कस्बे के उत्तर में स्थित रुणीचा नामक स्थान पर हर साल भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से एकादशी तक एक बहुत बड़ा मेला भरता है। बाबा रामदेव तंवर जाति के राजपूत संत थे। समाधि स्थल पर 1931 में बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह ने एक मंदिर बनवा दिया था। बाबा रामदेव को लेकर अनेक चमत्कारिक कहानियां लोक में प्रचलित हैं।

बाबा रामदेव राजस्थान के अत्यधिक प्रतिष्ठित लोक देवता हैं और समाज के सभी धर्मों और वर्गों के लोग इनमें अगाध आस्था रखते हैं। रामदेवरा में बाबा रामदेव का मंदिर, रामदेव सरोवर, गुरुद्वारा, परचा बावड़ी आदि दर्शनीय स्थल हैं। रामदेव जी की शिष्या डालीबाई की समाधि भी यहीं स्थित है। रामदेव जी का यह मेला हमारी सांस्कृतिक एकता का बहुत बड़ा प्रतीक है।

खाटू श्याम जी का मेला

सीकर जिले का खाटू श्याम जी का मंदिर बहुत ही विख्यात है। सीकर जिला मुख्यालय से लगभग 50 किलो मीटर दूर स्थित श्रीकृष्ण के ही एक स्वरूप श्री श्याम जी के इस मंदिर में वर्ष भर भक्तों की आवाजाही लगी रहती है। यहाँ फाल्गुन के शुक्ल पक्ष की दशमी से द्वादशी तक वार्षिक मेला लगता है जिसमें पूरे देश से भक्त गण आते हैं। मेले के अवसर पर बहुत बड़ी संख्या में भक्तगण यहीं अपने बच्चों के मुण्डन भी करवाते हैं। इस मंदिर से जुड़े हुए श्याम बगीचा और श्याम कुण्ड भी दर्शनीय हैं।

करणी माता का मेला

बीकानेर जिले में नोखा कस्बे के निकट स्थित करणी माता के मंदिर में साल में दो बार बड़े मेले लगते हैं। पहला मेला जो अधिक बड़ा होता है नवरात्रि में चैत्र शुक्ला एकम से चैत्र शुक्ला दशमी तक लगता है और दूसरा मेला अश्विन शुक्ला एकम से अश्विन शुक्ला दशमी तक लगता है। ये मेले करणी माता के सम्मान में आयोजित होते हैं जिन्हें बीकानेर के शासक अपनी अधिष्ठात्री देवी मानते हैं। करणी माता का मंदिर संगमरमर का बना हुआ और अपनी कलात्मकता में अनुपम है। इस मंदिर की एक विशेषता यह है कि यहां चूहे, जिन्हें काबा कहा जाता है, सहज भाव से विचरण करते हैं और उन्हें पवित्र माना जाता है।

कपिल मुनि का मेला

कोलायत में लगने वाला कपिल मुनि का मेला बीकानेर जिले का एक बड़ा मेला माना जाता है। कार्तिक पूर्णिमा को लगने वाला यह मेला कपिल मुनि के सम्मान में होता है। कोलायत का मूल नाम भी उन्हीं के नाम पर कपिलायतन था। भक्त गण मेले वाले दिन पवित्र नदी में स्नान कर अपने को धन्य करते हैं। इस मेले के अवसर पर यहाँ एक विशाल पशु मेला भी लगाया जाता है।

अन्य मेले

राजस्थान के विभिन्न शहरों, कस्बों और गाँवों में इतने मेले लगते हैं कि उन सबका वर्णन तो एक स्वतन्त्र पुस्तक में ही सम्भव हो सकता है। यहाँ हमने कुछ मुख्य मुख्य मेलों का ही वर्णन किया है। उपरोक्त वर्णित मेलों के अतिरिक्त बीकानेर जिले का जम्भेश्वर जी का मेला, सीकर जिले में जीणमाता का मेला, सवाई माधोपुर जिले में रणथम्भौर के गणेश जी का मेला, सवाई माधोपुर जिले में ही शिवाड़ क्षेत्र में शिवरात्रि पर लगने वाला मेला, परबतसर में तेजाजी का मेला, मेंहदीपुर के बालाजी का मेला, बाड़मेर जिले का गोगाजी का मेला, चुरू जिले में सालासर हनुमान जी का मेला, उदयपुर का हरियाली अमावस्या का मेला भी बहुत विख्यात हैं।

इन पारम्परिक मेलों के अतिरिक्त जैसलमेर का मरु मेला, गुलाबी नगरी जयपुर का हाथी महोत्सव, बीकानेर का ऊंट उत्सव, बीकानेर का ही मांड महोत्सव, बाड़मेर का थार महोत्सव, माउण्ट आबू के ग्रीष्म और शरद महोत्सव, बून्दी उत्सव, नागौर उत्सव, मेवाड़ उत्सव, शेखावाटी मेला भी बहुत बड़ी संख्या में पर्यटकों को आकृष्ट करते हैं।

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