भील जनजाति राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति है। ‘भील’ शब्द की उत्पति द्रविड़ भाषा के “बिलु’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है ‘कमान’। तीर-कमान में अत्यधिक निपुण होने के कारण जनजाति को यह नाम मिला। इनका मुख्या निवास स्थान उदयपुर है इसके अतिरिक्त बासवाडा, डूंगरपुर,चित्तौड़गढ़ जिलो में भी इनका निवास है।
मेवाड़ और मुगल समय में भील समुदाय को उच्च ओहदे प्राप्त थे,तत्कालीन समय में भील समुदाय को रावत,भोमिया और जागीरदार कहा जाता था। राणा पूंजा भील और महाराणा प्रताप की आपसी युद्ध नीती से ही मेवाड़, मुगलो से सुरक्षित रहा। हल्दीघाटी के युद्ध मे राणापूंजा और उनकी भील सेना का महत्वपूर्ण योगदान रहा। इसी कारण मेवाड राजचिन्ह मे एक तरफ महाराणा प्रताप और दूसरी तरफ राणापूंजा भील अर्थात राजपूत और भील का प्रतिकचिन्ह अस्तित्व मे आया।
- कुलदेवता – टोटम
- कुल देवी – आमजा माता/केलड़ा माता
- लोक देवी – भराड़ी( वैवाहिक अवसर पर इनका भित्ति चित्र बनाया जाता है)
इतिहासकारो द्वारा नामकरण:
- कर्नल जेम्स टोड – वनपुत्र
- टॉलमी -फिलाइट (तीरंदाज )
पौराणिक कथा :
- पुराणों के अनुसार भील जनजाति की उत्पत्ति भगवान शिव के पुत्र निषाद द्वारा मानी जाती है। कथा के अनुसार एक बार जब भगवान शिव ध्यान मुद्रा में बैठे हुए थे निषाद ने अपने पिता शिव के प्रिय बैल नंदी को मार दिया था तब दंड स्वरूप भगवन शिव ने उन्हें पर्वतीय क्षेत्र में निर्वासित कर दिया था वहां उनके वंशज भील कहलाये।
- रामायण महाकाव्य के रचयिता ऋषि वाल्मीकि भील पुत्र थे।तथा उनका मूल नाम वालिया था।
- महाभारत महाकव्य में वर्णित गुरुभक्त एकलव्य भी भील जनजाति थे।
- रामायण महकाव्य में भी शबरी नामक महिला का वर्णन मिलता है जिसने श्रीराम को वनवास के दौरान जूठे बेर खिलाए थे उस सबरी का संबंध भी भील जनजाति से ही था। इस जनजाति की कर्त्तव्यनिष्ठा, प्रेम और निश्छल व्यवहार के उदाहरण प्रसिद्ध हैं।
भील जनजाति से जुड़े कुछ शब्द :
निवास क्षेत्र :
- पाल – भील जनजाति के बड़े गाँव
- फला – भील जनजाति के छोटे गाँव
- कू अथवा टापरा – भीलों के घर
- भोमट -भील बाहुल्य क्षेत्र
कृषि :
- झूमटी / दाजिया – आदिवासियों द्वारा मैदानी भागों को जलाकर की जाने वाली कृषि
- झुनिंग / चिमाता – भीलों द्वारा पहाड़ी ढालों पर की जाने वाली कृषि
भील जनजाति के व्यक्ति :
- अटक –किसी एक हि पूर्वज से उत्पन्न गोत्र
- गमेती– भीलो के गांव का मुखिया
- पालवी – ऊँची पहाड़ी पे रहने वाले भील
- वागड़ी – मैदानों में रहने वाले भील
- बोलावा – मार्गदर्शन करने वाला व्यक्ति
- भोपा – भील जनजाति में झाड़-फूंक करने वाला
- भगत – धार्मिक संस्कार संपन्न करवाने वाला
- पाखरिया – जब कोई भील किसी सैनिक के घोडे़ को मार देता है तो उस भील को पाखरिया कहा जाता है।
वेश-भूषा :
- ठेपाडा – भील जनजाति के लोगो द्वारा पहने जाने वाली तंग धोती
- पोत्या – सिर पर पहना जाने वाला सफेद साफा
- पिरिया – विवाह के अवसर पर दुल्हन द्वारा पहना जाने वाला पीले रंग का लहंगा
- सिंदूरी – लाल रंग की साड़ी
- खोयतू – कमर पर बांधा जाने वाला लंगोटा
- कच्छाबू – महिलाओं का घुटने तक का घाघरा
- फालू – कमर का अंगोछा
- अंगरूठी – स्त्रियों की चोली
प्रमुख प्रथाएं :
- दापा – इस प्रथा के अनुसार विवाह के समय लड़के के पिता द्वारा लड़की के पिता को कन्या का मूल्य चुकाना पड़ता है।
- गोल गोधेडो प्रथा – इस प्रथा के अनुसार यदि कोई भील युवक अपने शौर्य और साहस का को प्रमाणित करने में विजय होता है तो उसे शादी हेतु किसी भी युवती को चुनने का अधिकार होता है।
- कट्टा – मृत्युभोज की प्रथा
- गोदना प्रथा – भील स्त्री-पुरुष शरीर को अलंकृत करने के लिए गुदना का प्रयोग करते हैं। भील महिलाओं के द्वारा आँखों के सिरों पर दो आड़ी लकीरें गुदवाना भील होने का प्रतीक माना जाता है।
- हाथी वेडो – विवाह की प्रथा, जिसमे वर(हरण) तथा वधू (लाडी) द्वारा बांस, पीपल या सागवान वृक्ष के समक्ष फेरे लिये जाते है।
- केसरिनाथ के चढ़ी हुई केसर – भील केसरिनाथ के चढ़ी हुई केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोल सकता।
- फाइरे – भील जनजाति का प्रमुख रण घोष
- मौताणा – उदयपुर संभाग में प्रचलित प्रथा है, जिसके अन्तर्गत खून-खराबे पर जुर्माना वसूला जाता है।
- वढौतरा – मौताणा प्रथा में वसूली गई राशि वढौतरा कहलाती है।
विवाह :
- हरण विवाह – लड़की को भगाकर किया जाने वाला विवाह।
- परीक्षा विवाह – इस विवाह में पुरूष को अपने साहस का प्रदर्शन करना होता है।
- क्रय विवाह(दापा करना) – वर द्वारा वधू का मूल्य चुकाकर किया जाने वाला विवाह।
- सेवा विवाह – शादी से पूर्व लड़के को अपने भावी सास-ससुर की सेवा करनी पड़ती है।
- हठ विवाह – लड़के तथा लड़की द्वारा भाग कर किया जाने वाला विवाह
त्यौहार व उत्सव :
- भील जनजाति का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार होली है।
- गल – होली के दूसरे दिन मनाया जाने वाला यह पर्व मनौतियों का त्यौहार है। मनोकामना पूर्ण होने पर गल के खंभे पर झूलकर तीन, पाँच या सात परिक्रमा करते है।
- गढ़ – होली के पश्चात एकादशी को इस पर्व का आयोजन किया जाता है। इसमें भील युवकों के शौर्य प्रदर्शन और मनोरंजन का एक आयोजन होता है।
- दिवासा – यह जून माह में मनाया जाता है। इस दिन भीलों द्वारा सामूहिक रूप से विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा की जाती हैं, बलि देना तथा मद्य का तर्पण किया जाता है।
- भगोरिया हाट उत्सव – विवाह योग्य जोड़े को मिलाने हेतु आयोजित किया जाता है।
मेले :
- बेणेश्वर मेला (डूंगरपुर) – यह मेला माघ पूर्णिमा को सोम-माहि जाखम नदियों के संगम पर भरता है।
- घोटिया अम्बा का मेला (बांसवाडा) -यह मेला चैत्र अमावस्या को भरता है। इसे “भीलों का कुम्भ”भी कहते है।
लोकगीत,लोकनाट्य व लोकनृत्य :
- सुवंटिया – भील स्त्री द्वारा गया जाने वाला लोकगीत
- हमसीढ़ो – भील स्त्री व पुरूष द्वारा युगल रूप में गया जाने वाला लोकगीत
- गवरी या राई नाट्य – रक्षाबंधन के दीसरे दिन से सवा महीने तक किया जाने वाला लोकनाट्य। इसे लोकनाट्यों का मेरु नाट्य भी कहते है।
- गवरी/राई नृत्य – उदयपुर संभाग में सावन-भादों में आयोजित किया जाने वाला यह मुखौटा प्रधान धार्मिक नृत्य है जो केवल पुरूषों द्वारा किया जाता है। मादल व थाली बजाने के कारण इसे राई नृत्य कहते है।
- नाहर नृत्य – होली पर पुरुषो द्वारा कपास शरीर पर चिपका कर नाहर वेश धारण कर यह नृत्य किया जाता है।
- गैर नृत्य – फाल्गुन मास में होली पर स्त्री-पुरूषो द्वारा फसल की कटाई के अवसर पर ढोल, मांदल, थाली के साथ के साथ किया जाने वाला नृत्य।
- युद्ध नृत्य – पुरूषों द्वारा मेवाड़ का प्रसिद्ध नृत्य।
- द्विचकी नृत्य – विवाह के अवसर पर पुरूषों महिलाओं द्वारा वृताकार में किया जाने वाला नृत्य।
- घूमरा – बांसवाड़ा प्रतापगढ़, डूंगरपुर, महिलाओं द्वारा सभी उत्सवों पर किया जाने वाला नृत्य।
- नेजा नृत्य – खेल नृत्य, होली के तीसरे दिन से स्त्री-पुरूषों द्वारा खम्भे पर नारियल बाधकर किया जाने वाला नृत्य।
- हाथीमना नत्य – विवाह के अवसर पर पुरूषों द्वारा घुटनों के बल बैठकर किया जाने वाला नृत्य।