यह तो एक सुस्पष्ट तथ्य बन ही गया है कि स्वतंत्रता के बाद समूचे भारत के जनजीवन को झकझोर देने वाली घटना सिद्ध हुई है सन् 2016 के नवम्बर मास में की गई नोटबंदी, जिसने सारे देश के नागरिकों को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया है। देश में 500 और 1000 के पुराने नोटों को अमान्य घोषित करने की इस घटना को अंग्रेजी नाम दिया गया डिमोनिटाइजेशन (Demonetisation), जिसका भारत के शब्दावली आयोग ने अधिकृत हिन्दी पर्याय बताया है “विमुद्रीकरण‘। कुछ अर्थशास्त्र विशेषज्ञों ने इसे “रीमॉनिटाइजेशन’ बताया है जिसका अधिकृत पर्याय शब्दावली आयोग ने बताया है पुनर्मुद्रीकरण, किन्तु न जाने कब किस मीडिया के व्यक्ति ने इसे ‘नोटबन्दी’ कहकर पुकार लिया कि तब से यह घटना नोटबंदी नाम से विख्यात हो गई। सारे देश में करेंसी की इस उठापटक पर जब हमारा चिन्तन गया तो स्मृतिपटल पर यह घटनाक्रम भी आकार लेने लगा कि हमारे देश में कब से कागज के नोट चलने लगे थे, उससे पूर्व कैसी मुद्रा थी? क्या था हमारे देश में मुद्रा का, सिक्कों का, वित्तीय लेन-देन का प्रकार? क्या ऐसी नोटबन्दी पहले भी होती रही थी?
यह इतिहास बहुत ज्ञानवर्धक और मनोरंजक है। अर्थशास्त्रियों ने इस पर अध्ययन किया है, ग्रन्थ भी लिखे हैं। सामान्य जानकारी की दृष्टिसे इतना बतलाना ही पर्याप्त होगा कि विश्व के अन्य देशों की तरह, बल्कि उनमें सभ्यता के प्रसार से बहुत पहले, हमारे देश में वित्तीय लेन-देन के अनेक प्रकार प्रचलित थे, जिनमें विनिमय या ‘बार्टर’ अर्थात वस्तुओं के विनिमय या अदला-बदली का प्रकार तो पुराना है ही जैसे अनाज उगाने वाला किसान कपड़ा बनाने वाले जुलाहे को अनाज देकर उसके बदले में कपड़े ले लेता था, मकानों की चुनाई करने वाला कारीगर अपनी मेहनत के बदले में अनाज और वस्त्र ले लेता था किन्तु इस विनिमय से न तो वस्तुओं का संग्रह हो पाता था न मूल्यांकन क्योंकि खाद्य वस्तु आदि अल्पकालिक होती हैं। फलस्वरूप ऐसे किसी माध्यम की तलाश सहखाब्दियों पूर्व हुई जिसे वर्षों तक सहेजा जा सके। ऐसी वस्तुओं में “धातु” सर्वाधिक स्थायी पाई गई। हम जानते ही हैं कि सोना, चांदी या तांबा सदियों तक स्थायी रहते हैं अत: उन्हें विनिमय तथा क्रय का सर्वोत्तम साधन माना गया।
धातु मुद्रा
इसी कारण धातुओं से बनी मुद्राओं का इतिहास भारत में सहस्त्राब्दियों पुराना है। भारत की धरती सोना भी उपजाती है, चांदी भी और तांबा भी। इन धातुओं से बनी मुद्रा विनिमय, क्रय, विक्रय आदि का प्राचीनतम माध्यम रही है यह सुविदित ही है। जो शासन का प्रमुख होता था वह ऐसी मुद्राएं गढ़वाता था अत: बहुधा उसका नाम, उसका प्रतीक चिह्न अथवा उसके आराध्य देवता का चिह्न उस मुद्रा पर अंकित होता था। सदियों पुरानी ऐसी मुद्राएं हमारे देश में आज भी उपलब्ध हैं जिन्हें संग्रहकर्ता संकलित और अभिरक्षित करते रहे हैं।
गुप्तकाल और उससे परवर्तीकालों की अनेक स्वर्णमुद्राएं मिली है। इनका आयात-निर्यात भी होता था। सोने की मोहरें और चांदी के रुपये टकसालों में गढ़े जाते थे। सोने की मोहरों को प्राचीनकाल में निष्क, मुद्रा या दीनार आदि शब्दों से अभिहित किया जाता था। चूंकि सोना समस्त देशों में मूल्यवान धातु माना जाता था अत: बाहर के देशों में भी सोने की मुद्राएं बनती थीं। उनका आयात-निर्यात भी होता था। तभी तो दीनार शब्द अरबी-फारसी आदि में भी मोहर का वाचक है और संस्कृत में भी। प्राचीनकाल में स्वर्णमुद्रा को ही ‘रूपक’ या रूप्यक भी कहा जाता था, बाद में चांदी की मुद्रा भी बनने लगी। तब से रूप्य, रौप्य आदि शब्द चांदी के पर्याय भी बन गए। इस प्रकार सोने और चांदी के सिक्के सदियों तक चलते रहे। ये प्रायः सभी देशों में मान्य होते थे। इनका विमुद्रीकरण कभी नहीं होता था क्योंकि सोने-चांदी का स्वयं बहुमूल्य धातुओं के रूप में अच्छा मूल्य था अत: इनके मूल्य में थोड़ा बहुत अन्तर चाहे हो जाता हो, जिसे “अन्तर” के रूप में, ”बट्टे” के रूप में, कमो-बेश मूल्यांकन द्वारा निपटाया जाता रहता था, अन्यथा ये सदा मान्य रहते थे।
यही कारण था कि भारत के बड़े सम्राटों के नाम के, प्रतीक के या उपाधि के चिह के साथ खुदे हुए सिक्के सभी राज्यों की टकसालों में गढ़े या गढ़वाए जाते थे। पुराने सिक्कों में जो आज उपलब्ध हैं कहीं राजाओं, बादशाहों आदि के नाम या प्रतीक है अथवा उनके उपास्य देवी-देवताओं के मूर्ति-चिह खुदे मिले हैं। उदाहरणार्थ कुछ मध्यकालीन सिक्कों पर राम की मूर्ति है, कुछ पर देवी की। आमेर के राजा (बाद मेंजयपुर के राजा) वे अपना वंश सूर्यवंश को मानते हैं, राम के बड़े पुत्र कुश के वंशज के रूप में अपना वंश कुशवाह, कछवाहा आदि बतलाते हैं और राम के रथ पर जो ध्वज था उस पर “कचनार” के झाड़ का चिह अंकित रहता था अत: जयपुर की टकसाल में जो सिक्के ढाले जाते थे उन पर कचनार (कोविदार) के झाड़ का चिह्न खुदा रहता था। इसीलिए उसे “झाड़शाही सिक्का” कहते थे। इस प्रकार के सिक्के सभी रियासतों की टकसालों में गढ़े जाते थे।
मुगलकाल में शाही मोहरें सोने की और रुपये चांदी के ढाले जाते थे जो सारे देश में चलते थे। मुगल सम्राटों ने कुछ राजाओं को भी अपनी टकसालों में चांदी के रुपये ढालने का अधिकार दे रखा था। उदाहरणार्थ जयपुर बसने के बाद सन् 1740 में मोहम्मद शाह के अधिकार से चांदी-सोने के सिक्के जयपुर की “चांदी की टकसाल” में ढलते थे जो राजमहल के पास ही सिरहइयोढ़ी बाजार में स्थित थी। आज भी चांदी की टकसाल इस मोहल्ले का नाम है। इसमें एक रुपया एक तोले का होता था अर्थात 11.6 मिली ग्राम का जिस पर झाड़ का चिह्न अंकित होता था। बाद में ढलाई की छीजत के कारण इसका वजन साढ़े दस मिलीग्राम का ही रह जाता था, किन्तु शुद्ध चांदी होने के कारण इसका अच्छा मूल्य सदा बना रहता था। अब तो यह केवल प्राचीन संग्रहकर्मियों के पास ही देखा जा सकता है अन्यथा स्वतंत्रता प्राप्ति के कुछ वर्ष पूर्व तक जयपुर रियासत के कार्मिकों को इन्हीं सिक्कों में तनख्वाह मिलती थी। अत: मुझ जैसे अस्सी-पार जयपुरवासियों की स्मृति में तो ‘झाइशाही’ आज भी जीवित है। भारत में ब्रिटिश सरकार की स्थापना के साथ ही ब्रिटिश सम्राटों और साम्राज्ञियों के सिक्के भी चलने लगे। इनकी मान्यता के साथ रियासती सिक्कों की मान्यता भी इस कारण बनी रही कि इनमें जो सोना-चांदी होता था उसका अपना मूल्य भी बहुत होता था। भारत में रिजर्व बैंक की स्थापना सन् 1935 में कलकत्ता में हुई जिसके बाद सरकार ने ‘कॉइन्ज फॉर ऑल इंडिया’ जारी करने का आदेश निकाला और ब्रिटिश सम्राट के चेहरे वाला रुपया चलने लगा जिसे जयपुर में ‘कलदार रुपया’ कहा जाता था। इसकी बजाय जयपुर रियासत की टकसाल में गढ़े झाड़शाही रुपये में शुद्ध चांदी अधिक होती थी अत: उसका मूल्य अधिक आंका जाता था।
जिन अधिकारियों का वेतन झाइशाही रुपयों में निर्धारित था उन्हें यदि ब्रिटिश कलदार रुपये में भुगतान किया जाता था तो उसका अन्तर जोड़कर अर्थात् ‘बट्टा’ और मिलाकर तनख्वाह दी जाती थी। इस प्रकार धातु की मुद्राओं में विमुद्रीकरण की समस्या अधिक नहीं होती थी। तांबे, पीतल, निकल आदि के अठन्नी, चवन्नी, आना, पैसा, पाई आदि अनेक सिक्के चलते ही रहे हैं । सन् 1957 तक सोलह आने, चौसठ पैसे चलते थे, फिर दाशमिक प्रणाली के सौ पैसे चलने लगे।
कागजी मुद्रा
इस प्रकार धातु की मुद्राओं का इतिहास बहुत पुराना है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पेपर करेंसी या नोटों का प्रचलन पुराना नहीं है। रिजर्व बैंक ने तो अपनी पेपर करेंसी 1937 ई. में शुरू की किन्तु उससे पहले भी कुछ बैंकों के नोट चलते थे। ये नोट किस परम्परा के वारिस हैं, यह जानना बहुत दिलचस्प होगा।
वस्तुत: सदियों पहले से वस्तुओं की खरीद के लिए जिस प्रकार मुद्राएं चलती थीं, उसी प्रकार बड़े धनपतियों और प्रशासकों के हाथ की लिखी हुंडियां भी चलती थीं। ऐसे बड़े धनाधीश और नगरसेठ आदि धातु की मुद्राओं का भारी वजन भेजकर माल खरीदने की बजाय कागज पर या धातु के पतड़े पर अपने हाथ से यह अंकित कर उसे मुद्रा की तरह भेज देते थे कि “मैं इस हुंडी को रखने वाले को इतनी मुद्रा के बराबर धन देने का वादा करता हूं।” ऐसी हुंडी को स्वहस्त, हस्तलेख, मुद्रापत्र आदि विभिन्न नामों से जाना जाता था। ऐसी हुंडियां सदियों तक चलती रही थीं। यही हुंडी पेपर करेंसी या “नोट” की पूर्वज है। इसमें जो इबारत होती थी वही तो प्रोमिसरी नोट में आज तक अंकित मिलती है कि ‘इस नोट के धारक को मैं इतनी मुद्रा भुगताने का वचन देता हूँ।
इस प्रोमिस के कारण ही रिजर्व बैंक के नोटों को ”प्रोमिसरी नोट” कहा जाता है, यह सभी जानते हैं। ऐसी प्रोमिस वाले नोट प्रोमिसरी नोट कहलाते हैं और सरकारी नोट “करेंसी नोट”, यह छात्रों को आज भी पढ़ाया जाता है। रिजर्व बैंक की 1935 ई. में स्थापना के पहले भी ब्रिटिश सरकार एक रुपये का जो नोट चलाती थी उसे करेंसी नोट कहा जाता था। उसी पद्धति पर दो सदियों से एक रुपये का नोट भारत सरकार के वित्त मंत्रालय द्वारा करेंसी नोट के रूप में चलाया जाता है।
पेपर करेंसी का चलन अधिकृत रूप से ब्रिटिश सरकार ने सन् 1861 में पेपर करेंसी एक्ट लागू करके शुरू किया। सन् 1867 में रानी विक्टोरिया के चित्र वाले नोट जो एक तरफ ही छपे थे, चालू हुए। सन् 1935 में स्थापित रिजर्व बैंक ने विभिन्न अभिधानों (मूल्यों) के नोट छापने शुरू किए।
सन् 1947 में भारत के स्वतंत्र होते ही सरकार ने अशोक स्तंभ की छाप वाला एक रुपये का करेंसी नोट छपवाना शुरू किया। पांच, दस, सौ रुपये के प्रोमिसरी नोट रिजर्व बैंक ने छापना शुरू कर ही दिया था। एक हजार रुपये का जो नोट 1946 से छप रहा था उसे 1978 में विमुद्रित किया गया किन्तु उसका विशेष असर जनजीवन पर इसलिए नहीं दिखलाई पड़ा कि उस समय तक बहुत कम लोगों के पास इतने बड़े नोट हुआ करते थे। सन् 1987 में पांच सौ वाला नोट जारी किया गया। इससे पूर्व पचास रुपये वाला नोट तथा दस रुपये वाला नोट (1972 से) चलने लगे थे। एक हजार का नोट पुन: सन् 2000 ई. में चला। लगभग 16 वर्ष चलने के बाद नवम्बर 2016 में जो विमुद्रीकरण का तूफान आया उसमें 16 वर्ष का एक हजार का नोट और 29 वर्ष का पांच सौ का नोट किस प्रकार काल के गाल में समा गए इसका इतिहास तो भारत का बच्चाबच्चा जान ही गया है। इस घटना ने जिस प्रकार समूचे जनजीवन को झकझोर दिया उससे भारत की मुद्रा व्यवस्था के पूरे इतिहास की उठापटक की जिज्ञासा से कुछ जिज्ञासुओं के मानस भी तरंगित हो जाएं यह स्वाभाविक ही है।
यह संतोष की बात है कि भारत के अनेक प्राच्य विद्याविदों ने प्राचीन भारत की मुद्राओं के अन्वेषक का कार्य किया है और अनेक मुद्रा संग्राहकों ने विभिन्न काल खंडों की मुद्राओं का संग्रह भी कर रखा है। जयपुर के संग्रहालयों में कुछ प्राचीन मुद्राएं देखी जा सकती हैं। जयपुर के श्री प्रकाश कोठारी ने विभिन्न कालखंडों की मुद्राएं संगृहीत की हैं, उनकी परिचय पुस्तक भी तैयार की है। भारत में नोटों के इतिहास की सचित्र जानकारी भी कुछ परिश्रमी विद्वानों ने तैयार की है। “इंडियन पेपर करेंसी गाइड बुक” (Indian Paper Currency Guide Book 2014) इसी प्रकार का प्रकाशन है जिसमें प्रोमिसरी नोटों और करेंसी नोटों के इतिहास की पूरी जानकारी देखी जा सकती है।
यह जानकारी अवश्य आश्चर्यजनक है कि आजकल भारत के इन प्रोमिसरी नोटों पर जितनी भाषाओं और लिपियों में मूल्य अंकित होता है वह विश्व का एक कीर्तिमान है। प्रत्येक नोट पर ग्यारह लिपियों और सत्रह भाषाओं में उसका मूल्याभिधान अंकित होता है। इतनी भाषाओं में विश्व के किसी भी देश में नहीं छपता। आखिर भारत सर्वाधिक भाषाओं और लिपियों का धनी प्राचीनतम देश जो है! .
श्रेय:
- लेखक – देवर्षि कलानाथ शास्त्री – पूर्व अध्यक्ष राजस्थान संस्कृत अकादमी, सदस्य – केन्द्रीय संस्कृत आयोग,पूर्व निदेशक संस्कृत शिक्षा एवं भाषा विभाग, जयपुर
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