नोह् सभ्यता
- सर्वप्रथम उत्खनन – 1963-64
- उत्खननकर्ता – रत्नचन्द्र अग्रवाल
नोह पुरास्थल जिला मुख्यालय भरतपुर से पूर्व में लगभग 5 किलोमीटर दूरी पर बछामदी के पास स्थित है। इस पुरास्थल पर सर्वप्रथम उत्खनन का कार्य 1963-64 में पुरास्थल एवं संग्रहालय विभाग एवं केलिफोर्निया विश्वविद्यालय के संयुक्त अभियान में निवर्तमान निदेशक रत्नचन्द्र अग्रवाल के निर्देशन में प्रारम्भ हुआ। उत्खनन कार्य सात सत्रों तक चलता रहा। अन्तिम सत्र 1971-72 में सम्पन्न हुआ जिसमें 1400 ई.पू. से तीसरी शताब्दी ई. की उत्खनित पुरासामग्री भूगर्भ से भूतल पर प्रकाश में आई। इसी पुरातात्विक वैज्ञानिक उत्खनन के कारण नोह पुरास्थल (भरतपुर) का राजस्थान के मानचित्र पर अपना विशिष्ट स्थान है। नोह उत्खनन से पांच विभिन्न सांस्कृतिक स्तरों की जानकारी प्राप्त हुई है
प्रथम सांस्कृतिक स्तर
प्रथम सांस्कृतिक स्तर से कपिषवर्णी मृद् पात्रों के टुकड़े गहरे लाल रंग के चाक पर विनिर्मित मिले हैं। अधिकांश टुकड़े मोटे तथा उनके किनारे घिसे हुए प्राप्त हुए हैं। इस स्तर से केरीनेटेड कटोरे का टुकड़ा उल्लेखनीय है। मृद् भाण्डों के दो टुकड़ों पर कट निशानात के सजावटी रूप भी देखने को मिलते हैं।
द्वितीय सांस्कृतिक स्तर
द्वितीय सांस्कृतिक स्तर से काली व लाल सतह के अचित्रित मृद् भाण्डों की विद्यमानता उल्लेखनीय है। इस वर्ग के मृद भाण्डों में तश्तरी व कटोरों के खण्डित भाग मुख्य रूप से प्राप्त हुए हैं। अन्य सह मृद्भाण्डों में लाल खुरदरे व काली आभा वाले बर्तन भी देखे जा सकते हैं। इस स्तर से घट रूपी मृणु मणके की उपलब्धि महत्त्वपूर्ण है। आकृतिविहीन लौह के टुकड़ों की प्राप्ति भी इस स्तर से विशेष महत्त्व रखती है। इस स्तर से प्रथम स्तर की भांति भवनादि के अवशेष नहीं पाए गए हैं।
तृतीय सांस्कृतिक स्तर
तृतीय सांस्कृतिक स्तर का आवासीय जमाव पानी के कटाव के कारण अपनी परतों के मूल स्वरूप को अक्षुण्ण बनाए रखने में असमर्थ रहा है लेकिन फिर भी इस स्तर से सलेटी रंग के विचित्र मृद भाण्डों की विद्यमानता मुख्य रूप से देखने को मिलती है। पूर्वगामी काली व लाल सतह के मृद् भाण्डों की निरन्तरता भी इस स्तर पर देखने को मिलती है। लौह उपकरणों में बाणाव, तश्तरी, भालाग्र तथा शलाका आदि अवाप्त हुए हैं। ताम्र उपकरण भी मिले हैं। सलेटी रंग केमृद्भाण्ड के टुकड़े पर कपड़े की छाप भी इस स्तर से देखने को मिलती है।
चतुर्थ सांस्कृतिक स्तर
चतुर्थ सांस्कृतिक स्तर से प्राप्त अवशेष मौर्यकालीन है। इसमें काली व लाल सतह के बर्तनों का पूर्ण अभाव देखने को मिलता है। सलेटी रंग के चित्रित मृद् भाण्डों की निरन्तरता इस काल में देखने को मिलती है। उत्तरी काले पालिशदार बर्तनों के टुकड़े अधिक आभा के साथ देखने को मिलते हैं। मृण, ग्लास, हाथी दांत व पाषाण के मणके इस स्तर से प्राप्त हुए हैं ताम्बे के क्षयग्रस्त सिक्के व मिट्टी की मानव व पशु आकृतियां इस स्तर की अन्य उपलब्धियां हैं।
पांचवां सांस्कृतिक स्तर
टीले के सबसे ऊपरी भाग से प्राप्त पांचवां सांस्कृतिक स्तर शुंग व कुषाण कालीन सामग्री का प्रतिनिधित्व करता है। ईसा पूर्व (2 शताब्दी से 30वीं शताब्दी तक ) चाक पर बने लाल बर्तनों का बाहुल्य देखने को मिलता है। कुछ मृद भाण्ड़ों के टुकड़े त्रिरत्न व स्वास्तिक के चिह्नों के साथ देखने को मिलते हैं। इस काल की पक्की मिट्टी की मानव आकृतियां सजावट पूर्ण केश विन्यास के साथ देखने को मिलती हैं। यह काल भवनों के आठ संरचनात्मक स्वरूपों के अवशेष प्रदर्शित करता है। यहां से प्राप्त अवशेषों के आधार पर नोह महाभारत कालीन आर्यों का नगर था। यहां से प्राप्त चित्रित स्लेटी पात्र रेडियो कार्बन 14 विधि के आधार पर 1100-800 ईसा पूर्व के हैं। ऐसे ही पात्र महाभारत में उल्लिखित गंगा-यमुना के दोआब के अनेक प्राचीन नगरों हस्तिनापुर, वैशाली आदि में भी मिल चुके हैं।
मनके, मछली पकड़ने के कांटे, भाले के फलक, पासे, खिलौना गाड़ी के पहिये, मृणमूर्तियां, मातृका फलक, ताम्र मुद्राएं, धातु गलाने की भट्टी, मिट्टी की मुहर पर स्वास्तिक का चिह्न, खुरपी, हंसिया, चूड़ियां, तांबे के सिक्के, जानवरों की मूर्तियां, हवन कुण्ड, दीपदान तथा ओपदार काले पात्रों के टुकड़े तत्कालीन समृद्धि का परिचायक है। हड्डी की एक मुहर पर ब्राह्मी लिपि में ‘पाप हरे तज’ अंकित है, साथ ही मिट्टी के एक सकोरे पर औषधि निर्माण की विधि लिखी मिली है। नोह के अवशेषों में यौधेय सिक्कों की प्राप्ति महत्त्वपूर्ण है। ईस्वी सम्वत् की प्रारम्भिक शताब्दियों में यूनानी हमलों की समाप्ति तथा पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के बाद भरतपुर में गणतन्त्रों की विद्यमानता थी।
नोह की खुदाई से यह तथ्य भी सामने आया कि भारत में लौह का सर्वप्रथम उपयोग इसी स्थान से आरम्भ हुआ है। यहां से ईसा से 1200 वर्ष पूर्व के लौह अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहां से विशाल चूल्हे, हवन कुंड, हड्डी की मोहरें ईंट, खिलौने तथा सिक्के बड़ी मात्रा में प्राप्त हुए हैं। यह सामग्री इस बात को प्रमाणित करती है कि ईसा से कई शताब्दी पूर्व इस क्षेत्र में मानव सभ्यता एवं संस्कृति काफी उन्नत अवस्था में थी। हड्डियों की मोहरें काम में लाई जाती थीं, इससे अनुमान होता है कि शासन व्यवस्था काफी दृढ थी तथा वह धर्म से अनुप्राणित थी एक मोहर पर ‘पापहर्ता’ लिखा हुआ है। मौर्यकाल व शुंगकाल की मिट्टी की मोहरें भी मिली हैं। शुंग एवं कुषाण कालीन अनेक देव प्रतिमायें तथा तान्त्रिक उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। यहां से प्राप्त बर्तन, उपकरण, आभूषण एवं अन्य सामग्री हस्तिनापुर तथा वैशाली से प्राप्त सामग्री से काफी साम्य रखती है। यहां से प्राप्त पुरातात्विक सामग्री इस तथ्य के लिये काफी मजबूत आधार प्रदान करती है कि आर्यों की वैदिककालीन सभ्यता में यह स्थान प्रमुख केन्द्र, गांव अथवा बस्ती थी। आर्य सभ्यता ग्रामीण है जबकि नगर परम्परा द्रविड़ों, नागों तथा असुरों से आई है। वैदिक कालीन आर्यों के बाणों के लोहे के नोक यहां से बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। यही आर्य सभ्यता समय के साथ फलती-फूलती आज के युग तक चली आई है।
नोह ग्राम में शुंगकाल का प्रतिनिधित्व करने वाली एक विशालकाय यक्ष प्रतिमा पूजान्तर्गत है जो कि नौ फीट लम्बी व सात फीट चौड़ी है। इस आकर्षक व प्राचीन प्रतिमा को वर्ष 1966 में खोजने एवं प्रकाश में लाने का श्रेय वासुदेवशरण अग्रवाल को है। इस यक्ष के सिर पर बायीं ओर का भाग सुन्दर गोलाकार केश- विन्यास से भूषित है। चपटा प्रत्येक गले के पिछले हिस्से में एक अलंकृत पट्ट से बंधा है जिसकी गांठ से दोनों छोर कमर पर लटक आए हैं। छाती पर फेंटा कसा है और नीचे पहनी धोती मेखला से इस प्रकार संजोई है कि आकृति का स्तूप या निकला हुआ पेट स्पष्ट है कुण्डलों के अतिरिक्त उल्लेखनीय भुजबंध और कटक आभूषण हैं। प्रतिमा का दाहिना हाथ ही बच्चा है जो कलाई के पास से टूटा है। इस यक्ष का पूजन बड़ा लोकप्रिय है।
यक्ष समृद्धि, वैभव और अमरत्व के प्रतीक लोक देवता थे, पुराणों इनका कार्य पापियों का वध करना, उन्हें दुर्गति देना तथा अपने क्षेत्र का संरक्षण बताया गया है। कुषाण काल का प्रतिनिधित्व करने वाली कुछ अन्य प्रतिमाएं भरतपुर संग्रहालय में प्रदर्शित हैं जिनमें सिकड़ खेड़ा से प्राप्त नवग्रह, सोगर, नौह, अघापुर, पीरनगर तथा बीराबई से प्राप्त यक्ष व यक्षिणी की प्रतिमाएं नौह की बोधिसत्व, मैत्रेय तथा अधापुर से प्राप्त स्वामी कार्तिकेय व एकमुखी शिवलिंगम् की प्रतिमाएं पुरातत्व की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इनकी उपासना का समावेश प्रायः वैदिक, भागवत, बौद्ध तथा जैन आदि सभी धार्मिक सम्प्रदायों में है।
संस्कृत, पाली और प्राकृत साहित्य भी यक्षों की लोकोपासना से भरे पड़े हैं। यक्ष की मान्यता वैसे तो इस क्षेत्र के प्रायः सभी धर्मों में देखी जाती है, किन्तु विशेषकर जैन तीर्थंकरों के साथ इनकी मूर्तियां अधिक निर्मित हुई हैं। भरतपुर संग्रहालय के क्रमांक 67 तथा 237 पर दर्ज एवं जैन कक्ष में प्रदर्शित ऋषभनाथ की प्रतिमाओं के साथ यक्ष यक्षिणी का सुन्दर अंकन देखने को मिलता है। इसी प्रकार की एक अन्य आकर्षक यक्ष प्रतिमा बीराबई से इस संग्रहालय को प्राप्त हुई जिसमें खंजर का भी अंकन है। यह प्रतिमा रत्नचन्द्र अग्रवाल ने प्रदर्शित की है। प्राचीन काल में प्रायः प्रत्येक गांव का एक लोकदेवता एक यक्ष होता था जिसे ब्रह्म अथवा वीर कहते थे।
नोह् सभ्यता उत्खनन से प्राप्त मूर्तियां
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