राजस्थान की लोककलाएं | लोक कला जनसाधारण की सहज अभिव्यक्ति का एक स्वरूप है। आम जन द्वारा बिना किसी ताम-झाम व प्रदर्शन से जब अपनी स्वाभाविक कलाकारी को चित्र, संगीत, नृत्य आदि के रूप में पेश किया जाता है, तो वह लोककला कहलाती है। इसका उदय समाज के रीति रिवाजों पर आधारित होता है। यह मानव सभ्यता के धार्मिक विश्वासों और आस्थाओं पर आधारित होती है। वास्तव में लोककला ही संस्कृति की वास्तविक वाहक व प्रस्तुतकर्ता होती है। इस लेख में राजस्थान की प्रमुख लोक कलाओ का वर्णन किया गया है
राजस्थान की प्रमुख लोककलाएं:
सांझी
- अवसर – दशहरे से पूर्व श्राद्ध-पक्ष में पन्द्रह दिन तक।
- अन्य नाम – सांझी, संझुली, सांझुली, सिंझी, सांझ के हाँजी, हाँज्या।
- उपलक्ष – सांझी को माता पार्वती का रूप मान कर अच्छे वर, घर की कामना के लिए कन्याएं पूजन करती हैं।
- सांझी के अंतिम दिन महिलाओं द्वारा थम्बुड़ा व्रत किया जाता है।
- केले की सांझाी के लिए श्री नाथ मंदिर (नाथ द्वारा) प्रसिद्ध है।
- उदयपुर का मछन्द्र नाथ मंदिर सांझी का मंदिर कहलाता है।
कुंवारी कन्याएं सफेदी पुती दीवारों पर पन्द्रह दिन लगातार गोबर से सांझी उकेरती व उसका पूजन करती हैं। कन्याएं गोबर से रेखाओं को उकेरकर उनमें काँच के टुकड़े, मोती, चूड़ी, कौड़ी, पत्थर, पंख, कपड़ा, कागज, लाख, फूल-पत्तियाँ आदि के प्रयोग द्वारा एक दमकती हुई रंगीन चित्ताकर्षक आकृति बनाती हैं।
पहले दिन से दसवें दिन तक एक या दो प्रतीक ही प्रतिदिन बनाए जाते हैं, किन्तु अंतिम पाँच दिन बहुत बड़े आकारों में सांझी की रचना की जाती है, जिसे संझ्या कोट कहते हैं। पहले दिन सूर्य, चन्द्रमा, तारे, दूसरे दिन पाँच फूल, तीसरे दिन पंखी, चौथे दिन हाथी सवार, पाँचवें दिन चौपड़, छठे दिन स्वास्तिक, सातवें दिन घेवर, आठवें दिन ढोलक या नगाड़े, नवें दिन बन्दनवार व दसवें दिन खजूर का पेड़ बनाया जाता है। आखिरी पाँच दिन संझ्याकोट में बीचों-बीच सबसे बड़े आकार में सांझी माता व मानव,पशु-पक्षी, प्रकृति आदि का चित्रण किया जाता है।लोकमान्यता के अनुसार जो भी लड़की पितृ पक्ष के दिनों में सच्चे मन से ‘सांझी’ की पूजा करती है, उसे बहुत ही संपन्न और सुखी ससुराल मिलता है।
जल सांझी
जल सांझी एक ऐसी कला है जिसमें पानी पर चित्र उकेरे जाते हैं। यह कला करीब साढ़े तीन सौ वर्ष पुरानी है। यह कला भगवान कृष्ण को समर्पित है इसमें कृष्ण लीलाओं का चित्रांकन किया जाता है। चित्रकला का यह प्रतिरूप राजस्थान के उदयपुर में प्रचलित है।
मांडणा
मांगलिक अवसरों पर घर की देहरी, दीवारों, चौखट, आंगन, चबूतरा, चौक, घड़ा रखने का स्थान, पूजन-स्थल आदि पर विभिन्न रंगो के माध्यम से उकेरी गई कलात्मक आकृतियां माण्डणे कहलाती है। माण्डणों में त्रिकोण, चतुष्कोण, षट्कोण, अष्टकोण, वृत्त आदि आकृतियां भी बनाई जाती हैं। ये मांडणे अत्यन्त सरल होते हुए भी अमूर्त व ज्यामितीय शैली का अद्भुत सम्मिश्रण हैं |
राजस्थान में विभिन्न अवसरों पर बनाये जाने वाले मांडने :
- विवाह अवसर पर बनाये गए मांडने – गणेशजी, लक्ष्मीजी के पैर, स्वास्तिक आदि के साथ ही गलीचा, मोर-मोरनी, गमले, कलियां, बन्दनवार
- बच्चे के जन्म पर – गलीचा, फूल, स्वास्तिक
- रक्षाबंधन पर – श्रवणकुमार
- गणगौर पर – गुणों (एक मिठाई) का जोड़, घेवर, लहरिया
- तीज पर – घेवर, लहरिया, चौक, फूल, बगीचा आदि
कुछ प्रमुख मांडने
- पगल्या(लक्ष्मी जी के पैर) – दीपावली के समय लक्ष्मी पूजन से पूर्व देवी के घर में आगमन के रूप में बनाये गए मांडने
- थाम – विवाह के समय लगन मंडप में तैयार किया गया मांडणा। यह दाम्पत्य जीवन में खुशहाली का प्रतीक माना जाता है।
- चैकड़ी – होली के अवसर पर बनाए गए मांडणे जिसमे चार कोण होते है जो चारों दिशाओं में खुशहाली का प्रतीक माने जाते है।
- थापा – मांगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर की चैखट पर कुमकुम तथा हल्दी से बनाए गये हाथों के निशान।
- पुष्कर पेड़ी तथा पथवारी – यदि कोई तीर्थयात्रा कर सकुशल घर लौट आता है तो इस खुशी में बनाये गए मांडने।
- मोरड़ी माण्डणा – दक्षिणी तथा पूर्वी राजस्थान में मीणा जनजाति की महिलाओं द्वारा घरों में बनाई गई मोर की आकृति मोरड़ी माण्डणा कहलाती है। मोर को सुन्दरता, खुशहाली तथा समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
- स्वास्तिक/साथ्या/सांखिया – उत्तरी व पश्चिमी राजस्थान में सांखिया, तथा पूर्वी राजस्थान में साथ्या कहते है। मांगलिक अवसरों पर ब्राहाणों के द्वारा मन्त्रोचार से पूर्व पूजा के स्थान पर स्वास्तिक बनाया जाता है।
राजस्थान की लोककलाएं – फड़
फड़ कला के प्रमुख चित्रकार – श्रीलाल जोशी(भीलवाड़ा )
राजस्थान में देवी-देवताओं की गाथाओं का कपड़े पर बने चित्रों के माध्यम से पट-चित्रण किया जाता है जिसे राजस्थानी भाषा में ‘फड़’ कहा जाता है। फड़ चित्रांकन का प्रधान केन्द्र शाहपुरा (भीलवाड़ा) है, इसे फड़ चित्रकला के कारण राष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाता है, यहां की छीपा जाति के जोशी फड़ चित्रकला में निपुण है।
फड़ का वाचन भोपों द्वारा किया जाता है। भोपे फड़ को लकड़ी पर लपेट कर गाँव-गाँव जाकर पारम्परिक वस्त्रों में रावण हत्था या जन्तर वाद्य-यंत्र की धुन के साथ कदम थिरकाते हुए इसका वाचन करते हैं। यह लोक नाट्य, गायन, वादन, मौखिक साहित्य, चित्रकला व लोकधर्म का एक अनूठा संगम हैं। इसमें लोक देवताओं के जीवन के अनेकों प्रसंगों व उनसे संबंधित चमत्कारों को चित्रित किया जाता है। चित्रों में प्रमुखाकृति को सबसे बड़ा बनाया जाता है। अन्य आकृतियां उसके अनुपात में कहीं छोटी बनाई जाती हैं। रंगों का प्रतीकात्मक प्रयोग भावों की अभिव्यक्ति में सहायक है, जैसे-देवियां नीली, देव लाल, राक्षस काले, साधु सफेद या पीले हैं और सिन्दूरी व लाल रंग शौर्य व वीरता के प्रतीक हैं।
फड़ रचना
फड़ चित्रांकन के लिए सर्वप्रथम मोटे हाथकते दो सूती कपड़ों (रेजी या रेजा) पर गेहूँ या चावल के मांड में गोंद मिला कर कलफ लगाया जाता है। सतह तैयार होने पर उसे घोट कर समतल किया जाता है। इस पर पाँच या सात रंगों से चित्रण किया जाता है। रंगों में गेरू, हिरमिच, जंगाल, हरताल, प्योड़ी, सिन्दूर, हिंगुल, काजल, चूना व नील आदि का प्रयोग किया जाता है। सर्वप्रथम सिन्दूरी रंग शरीर में, फिर हरा व लाल रंग कपड़ों में, भूरा वास्तु-निर्माण में एवं अंतिम रेखाएँ (खुलाई) केवल काले रंग से की जाती है।
राज्य में निम्न प्रकार की फड़ प्रचलित है :
पाबुजी की फड़
- फड़ के वाचन में प्रयुक्त वाद्यययंत्र – रावणहत्था
- पाबुजी की फड़ सबसे लोकप्रिय फड़ है।
- नायक या आयडी जाति के भोपों-भोपियों द्वारा इस फड़ का वाचन रात्रि के समय किया जाता है।
- इस फड़ में पाबूजी की घोड़ी को काले रंग से चित्रित किया जाता है तथा फड़ के मुख के सामने भाले का चित्र होता है।
- ऊंट के बीमार होने पर इस फड़ का वाचन किया जाता है।
देवनारायण जी की फड़
- फड़ के वाचन में प्रयुक्त वाद्यययंत्र – जन्तर नामक वाद्य यंत्र
- देवनारायण जी की फड़ राजस्थान की सबसे लम्बी लोकगाथा एवं सबसे अधिक चित्रांकन वाली फड़ है।
- यह फड़ राज्य की सबसे प्राचीन चित्रकला है।
- इस फड़ का वाचन गुर्जर जाति के अविवाहित भोपा-भोपी द्वारा रात्रि के समय किया जाता है।
- 1992 ई. में भारतीय डाक विभाग द्वारा देव नारायण जी की डाक टिकट जारी किया गया था।
रामदेव जी की फड़
- फड़ के वाचन में प्रयुक्त वाद्यययंत्र – रावणहत्था
- रामदेव जी की फड का वाचन कामड़ जाति के भोपा-भोपी द्वारा किया जाता है।
- रामदेवजी की फड़ का सर्वप्रथम चित्रांकन चौथमल चितेरे ने किया था।
रामदला व कृष्णदला की फड़
- फड़ के वाचन में प्रयुक्त वाद्यययंत्र – बिना वाद्य यंत्र का प्रयोग किये वाचन किया जाता है।
- यह फड़ हाडौती क्षेत्र में सर्वाधिक प्रचलित है।
- इस फड़ का वाचन भाट जाति के भोपों द्वारा दिन के समय किया जाता है।
भैंसासुर की फड़
- इस फड़ का वाचन नहीं होता है, केवल दर्शन किए जाते हैं।
- यह फड़ बावरी या बागरी जाति में लोकप्रिय है।
- चोरी करने से पूर्व इस जाति के लोग इस फड़ के दर्शन एवं पूजा कर शगुन लेते हैं।
अमिताभ की फड़
- इस फड़ का चित्रांकन भोपा रामलाल व भोपी पताशी ने 2005 में किया था
- इन्होने अमिताभ बच्चन को एक डॉक्यूमेंट्री में लोकदेवता के रूप में प्रदर्शित किया है।
राजस्थान की लोककलाएं – पाने
राजस्थान में विभिन्न उत्सवों व त्यौहारों पर देवी-देवताओं के कागज पर बने चित्र (पाने) प्रतिष्ठापित किये जाते है। दीवाल चित्रों के विकल्प के रूप में इन पानों का प्रचलन हुआ है। ग्रामीण जन इन्हें खरीद कर समयानुसार प्रयुक्त करते हैं। राजस्थान में गणेशजी, लक्ष्मीजी, रामदेवजी, गोगाजी, श्रवण कुमार, तेजाजी, राम, कृष्ण, शिव-पार्वती, धर्मराज, देवनारायणजी, श्रीनाथजी, नृसिंह आदि के पाने प्रचलित हैं। श्रीनाथजी का पाना इनमें सर्वाधिक कलात्मक है, जिसमें चौबीस श्रंगारों का चित्रण होता है।
राजस्थान की लोककलाएं – काष्ठ कलाकृति
कावड़
- प्रमुख कावड़ कलाकार – मांगीलाल मिस्त्री
- कावड़ बनाना चित्तौड़गढ़ जिले के बस्सी गाँव के खैरादियों का पुश्तैनी व्यवसाय है।
- कावड़ एक मंदिरनुमा काष्ठकलाकृति है, जिसमें कई द्वार बने होते हैं। सभी द्वारों या कपाटों पर चित्र अंकित रहते हैं। कथा वाचन के साथ-साथ ये कपाट खुलते जाते हैं और अंत में राम, लक्ष्मण व सीता जी की मूर्तियां दर्शित होती हैं।
- कावड़ लाल रंग से रंगी जाती है व उसके ऊपर फिर काले रंग से पौराणिक कथाओं का चित्रांकन किया जाता है। इनमें महाभारत, रामायण, कृष्ण लीला के विभिन्न चरित्रों व घटनाओं का विवरण होता है। साथ ही शनि, हनुमान, ब्रह्मा, लक्ष्मी, गरुड़ व लोक-देवताओं जैसे-पाबूजी रामदेवजी, हरिशचन्द्र, गोपीचन्द भरथरी को कथानुसार कावड़ में चित्रित करते हैं।
- कावड़ जनजीवन की धार्मिक आस्थाओं और विश्वासों से जुड़ी है इसीलिए इसका वाचन-श्रवण कर लोग श्रद्धाभिभूत हो जाते हैं और मनमाना दान करते हैं।
कठपुतली
- कठपुतली द्वारा किसी व्यक्ति विशेष के पात्र को धागों की सहायता से काष्ठ से बने ढांचे में प्रस्तुत किया जाता है।
- कठपुतली का निर्माण उदयपुर चित्तौडगढ़, जयपुर (कठपुतली नगर) में किया जाता है।
- धागापुतली शैली राजस्थान की देन मानी जाती है।
- कठपुतली नाटक का मंचन नट अथवा भाट जाति द्वारा किया जाता है।
- कठपुतली कला के विकास के लिए कार्यरत संस्था भारतीय लोक कला मण्डल – उदयपुर है। इस संस्था की स्थापना सन् 1952 में देवीलाल सांभर ने की थी।
- सन् 1965 में रूमानिया में आयोजित तृतीय अंतर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में उदयपुर के भारतीय लोककला मण्डल के कलाकारों ने राजस्थान की इस कला में विश्व का प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया था।
- सिंहासन बत्तीसी, पृथ्वीराज संयोगिता और अमरसिंह राठौड़ जैसे खेल इन्हीं कठपुतलियों के द्वारा गाँव-गाँव, घर-घर दिखाये जाते रहे हैं।
बेवाण
- यह लकड़ी से निर्मित सिंहासन होता है जिस पर ठाकुर जी की मूर्ति को श्रृंगारित करके बैठाया जाता है तथा जलझूलनी एकादशी (भाद्र शुक्ल एकादशी) के दिन किसी तालाब के किनारे ले जाकर नहलाया जाता है।
- बेवाण का निर्माण बस्सी (चित्तौड़गढ) में होता है।
चौपड़ा
- लकड़ी से निर्मित दो, चार अथवा छः खाने युक्त मसाले रखने का पात्र है, जिसे पश्चिमी राजस्थान में हटड़ी कहते है।
- इसका उपयोग पूजन अथवा मांगलिक कार्यों में हल्दी, कुमकुम, मेहँदी तथा अक्षत रखने में किया जाता है।
तौरण
- विवाह के अवसर पर वर द्वारा वधु के घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर जो लकड़ी की कलात्मक आकृति लटकाई जाती है, उसे तौरण कहते है।
- तौरण पर मुख्यत मयूर अथवा सुवा की आकृति अंकित होती है।
- तौरण को वर द्वारा तलवार अथवा हरी टहनी से स्पर्श करवाया जाता है।
बाजोट
- लकड़ी की चौकी जिसे भोजन के समय अथवा पूजा के समय प्रयुक्त किया जाता है।
- विवाह के समय वर व वधू को बाजौट पर बिठा कर रस्मे की जाती है।
खाण्डा
- लकड़ी से निर्मित तलवारनुमा आकृति जिसका उपयोग रामलीला नाटक में तलवार के स्थान पर किया जाता है।
- राजस्थान में होली के अवसर पर कारीगर द्वारा गांव में खाण्डे बांटने की परम्परा है।
- गुलाबी रंग का खाण्डा शौर्य का प्रतीक माना जाता है।
- पूर्वी राजस्थान में दुल्हन द्वारा दुल्हे के घर खाण्डे भेजने की परम्परा है।
पावटी
पांव से चलने वाली लकड़ी की रेहट होती है, ये विशेष तौर पर उदयपुर के गांवों में ही नजर आती है।
- गेड़ – गेड़ एक तरह की सुराही होती है, जिसे रेहट पर लगाकर पानी निकाला जाता है। ये अपने विशेष आकार-प्रकार के लिए जानी जाती है।
राजस्थान की लोककलाएं – मेहंदी
राजस्थान में मेहंदी प्राचीन काल से प्रचलन में है। स्त्रियां व बालिकाएं तूलिका से हाथों में मेहन्दी के बारीक माण्डणे माण्डती हैं। सोजत व मालवा की मेहंदी मारवाड़ में बहुत प्रसिद्ध है। मेहंदी स्त्रियों द्वारा विवाह, सगाई, बच्चे के जन्म, विविध पूजनों व शुभ कार्यों में लगायी जाती है। मेहंदी में विविध प्रकार के अलंकरण बनाये जाते हैं। इनमें दीपावली पर पान, हटड़ी की भाँत, शंख, पगल्या (लक्ष्मी जी के पैर), सोलह दीपक, सुदर्शन, चक्र व मकर संक्रांति पर घेवर, बीजणी, करवा चौथ पर छबड़ी, स्वास्तिक, रक्षाबन्धन पर लहरिया, चीक व शादी पर तोरण, कैरी, सिंघाड़ा, स्वास्तिक, कलश, फूल आदि प्रमुख है।
राजस्थान की लोककलाएं – गोदना
शरीर को सुसज्जित करने की दृष्टि से गोदना गुदवाने की परम्परा का विकास हुआ। किसी तीखे औजार से शरीर के ऊपर की चमड़ी खोदकर उसमें काला रंग भरने से चमड़ी में पक्का निशान बन जाता है जिसे गोदना कहते है। आदिवासी लोगों में गोदने गुदवाने का अधिक चाव रहा है। पर्याप्त धन व आभूषणों के अभाव में शरीर के विविध अंगों पर गोदने गुदवाकर वे अपनी सौन्दर्य-भावना को संतुष्ट करते हैं। स्त्रियां ललाट पर चांद, तिलक, आड़ गुदवाती हैं। आँखों को तीर के समान पैनी दर्शाने हेतु नीचे की पलक के साथ ‘सार्या गुदवाती हैं। धार्मिक प्रतीक जैसे राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, स्वास्तिक, कलश, ओम व त्रिशूल, पशु-पक्षी, फूल-पत्तियों व वृक्षों, दैनिक कार्यों में काम आने वाली वस्तुएँ गुदवायी जाती हैं।
गोड़लिया
पशुओं के शरीर पर विविध प्रकार की आकृतियों के बड़े कलात्मक दाग दिये जाते हैं। ये दाग चुराये गये पशुओं की शिनाख्त के अतिरिक्त सामान्य पहचान के लिये भी दिये जाते हैं।
- अटेरना – दागने की यह क्रिया
- गोड़लिया – दाग के निशान
पशुओं के ये चिन्ह कहीं जाति विशेष के, कहीं अंचल विशेष के तो कहीं विशिष्ट राजघराने के प्रतीक हैं। दागने के इन चिन्हों में प्रकृति के विविध उपादान, धार्मिक आस्थाओं के प्रतीक चिन्ह, मानवाकृतियों, विविध कृषि उपकरण तथा दैनिक आवश्यकता की वस्तुओं के विभिन्न आंकों का समावेश मिलता है। ये दाग लोहे के सरिये, मिट्टी की ढकनी, लोहे पीतल के अक्षर अथवा किसी वृक्ष विशेष की डाली को गर्म कर दागे जाते हैं।
कोठियाँ
ग्रामीण क्षेत्रों में भण्डारण हेतु कलात्मकता कोठियाँ निर्मित की जाती हैं। कोठियाँ चिकनी मिट्टी की सहायता से बनाकर उन पर विभिन्न प्रकार के जाली, झरोखे, कंगूरे, देवी-देवता, जीव-जन्तु, बेल-बूंटे तथा मांडणे उभारे जाते हैं। इन कोठे-कोठियों में अन्न के अतिरिक्त दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुएं जैसे घी, दूध, दही आदि रखे जाते हैं।
वील
पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में वील रखने की परम्परा पुराने घरों में सर्वत्र दिखाई देती है। वील बांस की पतली-पतली खपच्चियों को धागे से बांधकर घोड़े की लीद मिली चिकनी मिट्टी से बनायी जाती है। यह वील विभिन्न आकार-प्रकार के खाने लिये होती है। इसे सुंदर बनाने के लिये इसमें कई छोटे-छोटे गवाक्ष, जालियां और कंगूरे बनाये जाते हैं। इन पर छोटे-छोटे कांच चिपकाये जाते हैं। इनमें दैनिक उपयोग की वस्तुएं, बर्तन आदि सजाये जाते हैं। जैसलमेर क्षेत्र में एक से बढ़कर एक सौन्दर्यपूर्ण वील देखने को मिलती हैं।
बटेबड़े
ग्रामीण क्षेत्रों में ईंधन के लिए गोबर के कंडे (छाणे, उपळे) थापे जाते हैं। इन्हें धूप में सुखाया जाता है। तत्पश्चात एक जगह इकट्ठा कर इस ढेर की गोबर से लिपाई की जाती है। इस पर तरह-तरह के अलंकरण और ज्यामितीय आकार उकेरे जाते हैं। वर्षा ऋतु में जब जलाऊ लकड़ी का ईंधन गीला हो जाता है, तब ये सूखे कंडे जलाने के काम आते हैं। मेवात क्षेत्र में बहुलता से बनाये जाने वाले ये कलात्मक बटेबड़े किसी कलादीर्घा से कम नहीं हैं। ये महिलाओं की कलात्मक रुचि के भी परिचायक हैं।