राजस्थान में पाषाण काल

राजस्थान में पाषाण काल

राजस्थान में प्राप्त आदि मानव द्वारा प्रयुक्त पाषाण उपकरण लगभग डेढ़ लाख वर्ष प्राचीन है। राजस्थान में पुरातात्विक स्त्रोतों के सर्वेक्षण का कार्य सर्वप्रथम 1871 ईस्वी में A.C.L कार्लाइल द्वारा किया गया था। इसके पश्चात् व्यापक स्तर पर उत्खनन कार्य का श्रेय एस.आर. राव, डी.आर. भंडारकर, दयाराम साहनी, एच.डी. सांकलिया, बी.एन. मिश्र, आर.सी. अग्रवाल, बी.बी. लाल, एस.एन. राजगुरु, डी.पी. अग्रवाल, विजय कुमार, ललित, पांडे जीवन खारवाल जैसे विद्वानों को जाता है।

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राजस्थान से प्राप्त शैलचित्र

राजस्थान में अरावली श्रेणी व चम्बल नदी घाटी क्षेत्रों में प्रागैतिहासिक काल के विभिन्न शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं, इनमे पाषाण उपकरण, अस्थि अवशेष एवं अन्य पुरा सामग्री है। इन शैलाश्रयों की छत, भित्ति आदि पर प्राचीन मानव द्वारा उकेरे गये शैलचित्र तत्कालीन मानव जीवन का विवरण प्रस्तुत करते हैं। इनमें सर्वाधिक आखेट दृश्य उपलब्ध होते हैं। यह बूंदी में छाजा नदी तथा कोटा में चम्बल नदी क्षेत्र में प्राप्त हुए है। इनके अतिरिक्त विराटनगर (जयपुर), सोहनपुरा (सीकर) तथा हरसौरा (अलवर) आदि स्थलों से भी चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं। भरतपुर के ‘दर’ नामक स्थान से प्राप्त चित्रित शैलाश्रय में मानवाकृति, व्याघ्र, बारहसिंहा तथा सूर्य आदि के अंकन प्रमुख हैं।

राजस्थान में पाषाण काल की तीन संस्कृतियों का उल्लेख मिलता है।

  1. पूर्व पाषाण-काल
  2. मध्य पाषाण-काल
  3. उत्तर या नव पाषाण-काल

पूर्व पाषाण-काल

राजस्थान में प्रागैतिहासिक काल के अवशेषों का वैज्ञानिक शोध सीमित स्तर पर हुआ हैं।इन अध्ययनों और सर्वेक्षणों से ज्ञात होता है कि पुरापाषाणकाल में इस प्रान्त के कई क्षेत्रों ने मानव को आकर्षित किया। पुरापाषाण युग को तीन स्तरों में विभाजित किया गया है।

  • निम्न पुरापाषाण काल 5,00,000 – 1,00,000 ईसा पूर्व[ डीडवाना ]
  • मध्य पुरापाषाण काल 1,00,000 – 40,000 ईसा पूर्व[ लूणी घाटी | बूढ़ा पुष्कर ]
  • उच्च पुरापाषाण काल 40,000 – 10,0000 ईसा पूर्व

निम्न पुरापाषाण काल का मानव यायावर था। जंगली कंद-मूल फल तथा हरिणा, शूकर, भेड़, बकरी, बारहसिंहे आदि उसके भोज्य पदार्थ थे। मध्य पुरापाषाणकाल में उपकरण बनाने की सामग्री एवं तकनीक में परिवर्तन नहीं हुआ किन्तु उपकरणों से निकाली फलक अपेक्षाकृत छोटी एवं अर्द्धचंदाकार हो गयी। उपकरणों को बनाने में सुगढ़ता आ गयी। उच्च पुराप्रस्तर युग में मानव ने यायावर जीवन त्यागकर शैलाश्रयों, पहाड़ों की तलहटी एवं नदियों के किनारों पर बसने की अवधारणा का प्रतिपादन किया एवं चर्ट, अगेट आदि प्रकार के मुलायम प्रस्तरों से अपने उपकरणों का निर्माण करना आरंभ किया। बड़े उपकरणों के स्थान पर अपेक्षाकृत छोटे उपकरणों का प्रयोग प्रारम्भ हो गया।

प्रारम्भिक पाषाण काल के उपकरणों की खोज सर्वप्रथम श्री सी. ए. हैकर ने जयपुर और इन्द्रगढ़ से की थी। उन्होंने यहाँ से अश्म पत्थर से बने हस्त कुठार (हैण्ड एक्स) खोज निकाले थे, जो भारतीय संग्रहालय कोलकाता में उपलब्ध हैं। कुछ समय पश्चात् श्री सेटनकार को झालावाड़ जिले में उक्त काल के कुछ उपकरण प्राप्त हुए। इसके बाद हुए योजनाबद्ध उत्खनन में भारतीय पुरातत्व और संग्रहालय विभाग, नई दिल्ली, डेक्कन कॉलेज पूना के वीरेन्द्रनाथ मिश्र, राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के आर.सी. अग्रवाल, डॉ. विजय कुमार, हरिश्चन्द्र मिश्रा आदि विद्वानों ने राजस्थान की पूर्व पाषाणकालीन सभ्यता और संस्कृति के विभिन्न पक्षों को सामने लाने में सराहनीय योगदान दिया है।

इनके प्रयत्नों से राजस्थान में अजमेर, अलवर, चित्तौड़, भीलवाड़ा, जयपुर, झालावाड़, जालोर, जोधपुर, पाली. टोंक आदि क्षेत्रों की प्रमुख नदियों, विशेष रूप से चम्बल, बनास व उनकी सहायक नदियों के किनारे पूर्व पाषाणकालीन उपकरण हैण्ड एक्स, क्लीवर तथा चॉपर,विदारिणी, चक्राकार उपकरण विशेषतः प्राप्त हुये हैं। जालोर से इस युग के उपकरणों की खोज का श्रेय बी. आल्चिन को है।

पूर्व पाषाण काल के प्रमुख उपकरण

  • हैण्ड एक्स/हस्तकठार – 10 से. मी. से 20 से. मी. एक लम्बा नोकदार एक ओर गोल और चौड़ा तथा दसरी ओर नुकीला तथा तेज किनारे वाला औजार होता है। इसका उपयोग कंद-मूल फल खोदने शिकार को काटने और खाल उतारने के लिए होता था।
  • क्लीवर – एक आयताकार 10 से. मी. से 20 से. मी. तक लम्बा और 5 से. मी. से 10 से. मी. तक चौडा औजार होता था जिसका एक किनारा कुल्हाड़ी की भाँति सीधा और तेज धारदार तथा दूसरा गोल सीधा और त्रिकोण होता है।
  • चॉपर – यह एक गोल औजार है, जिसके एक ओर अर्ध-चन्द्रकार धार होती है। इसका दूसरा किनारा गोल और मोटा तथा हाथ में पकड़ने के लिए होता है।

मध्य पाषाण काल

राजस्थान में मानव सभ्यता के क्रमिक विकास की दूसरी कड़ी लगभग पचास हजार वर्ष पूर्व मध्य पाषाण-काल से उपलब्ध होती है। इस समय तक मानव को न तो पशुपालन का ज्ञान था और न खेती-बाड़ी का, इसलिए संगठित सामाजिक जीवन से यह संस्कृति अभी भी दूर थी। पश्चिम राजस्थान में लूनी और उसकी सहायक नदियों, चित्तौड़ की बेड़च नदी घाटी और विराटनगर से मध्य पाषाणकालीन उपकरण प्राप्त हुए हैं। इस काल के उपकरण छोटे, हल्के और कुशलतापूर्वक बनाए गये हैं। इन उपकरणों में ‘स्क्रेपर’, ‘ब्लेड’, ‘प्वाइंटर’, ‘इग्रेवर’, ‘ट्रायएंगल’, ‘क्रेसेन्ट’, ‘ट्रेपेज’, विशेष उल्लेखनीय हैं। इनको बनाने में जैस्पर, एगेट, चर्ट, कार्नेलियन, क्वार्टजाइट, कल्सेडोनी आदि पाषाणों का उपयोग किया गया है। पत्थर के बने इन छोटे उपकरणों को माइक्रोलिथ (लघु पाषाण उपकरण) कहा गया है।

मध्य पाषाण काल के प्रमुख उपकरण

  • स्क्रेपर – 3 से.मी. से 10 से.मी. लम्बा आयताकार तथा गोल औजार होता था, जिसके एक या दो किनारों पर धार होती थी और एक किनारा पकड़ने के काम आता था।
  • प्वाइंट – त्रिभुजाकार स्क्रेपर के बराबर लम्बा-चौड़ा औजार था जिसे ‘नोक’ अथवा अस्त्राग्र के नाम से भी जाना गया है। ये उपकरण तीर अथवा भाले की नोक का काम देते थे।

उत्तर या नव पाषाण काल

उत्तर पाषाणकालीन सभ्यता के सम्बन्ध में राजस्थान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहाँ आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व उत्तर पाषाणकालीन सभ्यता का उदय हुआ था। यहाँ वृहत् स्तर पर इस काल के स्थलों का उत्खनन हुआ है। इस संस्कृति से संबद्ध जितने विविध प्रामाणिक साक्ष्य यहाँ उपलब्ध हुए है अन्यंत्र कहीं नहीं हुए है।
राजस्थान में अजमेर, नागौर, सीकर, झुंझुनूं, जयपुर, उदयपुर, चित्तौड़, जोधपुर आदि स्थानों से उत्तर पाषाणकालीन सभ्यता के अनेक उपकरण प्राप्त हुये हैं, जिनमें भीलवाड़ा के बागोर और मारवाड़ के तिलवाड़ा नामक स्थानों से प्राप्त उपकरण विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।
इस काल के उपकरणों का आकार और छोटा तथा कौशल से भरपूर हो गया था। लकडी तथा हड्डी की लम्बी नली में गोंद से चिपकाकर इन उपकरणों का प्रयोग होता था। ये उपकरण उदयपुर के बागौर तथा मारवाड़ के तिलवाडा नामक स्थानों के उत्खनन से प्राप्त हुए हैं।

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