राजस्थान का इतिहास बहुत पुराना है। यहाँ के लोगों को अनेक उतार-चढ़ावों का सामना करना पड़ा है। संघर्ष और वैभव दोनों ही ने यहाँ के जीवन को प्रभावित किया और आकार दिया है। किसी भी प्रदेश के निवासी जैसा जीवन जीते हैं उसी के अनुरूप उनके रीति रिवाज भी बनते चलते हैं। रीति-रिवाजों का निर्माण न तो योजनाबद्ध रूप से होता है और न ही किसी संस्थान के द्वारा किया जाता है। जीवन की परिस्थितियाँ स्वतः कुछ परम्पराओं को गढ़ती चलती हैं और कालान्तर में वे ही परम्पराएं व्यवस्थाओं का रूप धारण कर लेती हैं। उन्हीं को हम किसी समाज के रीति-रिवाज के रूप में जानने लग जाते हैं। स्वाभाविक ही है कि राजस्थान में भी यही हुआ है। अगर संघर्षो, बलिदानों और त्याग के बहुत सारे प्रसंगों ने यहां के निवासियों में सादगी और संयमित जीवन की तरफ ले जाने वाले रीति रिवाजों की स्थापना की तो वैभव पूर्ण राजा महाराजों की जीवन शैली ने इससे इतर, शानो-शौकत वाले रीति रिवाजों की भी स्थापना की। जीवन में धर्म का बहुत अधिक महत्व रहा तो ये करीब-करीब सारे ही रीति-रिवाज धर्म से भी जुड़ते चले गए।
राजस्थान का समाज एक साथ ही ठहरा हुआ समाज भी है तो गतिशील समाज भी। अगर हम बहुत पीछे न भी जाएं और केवल आज की बात करें, तो पाएंगे कि राजस्थान में आज जो रीति रिवाज विद्यमान हैं उनमें ठहराव और गतिशीलता दोनों का एक अनूठा सामंजस्य झलकता है। हम आधुनिक होकर पश्चिमी तौर तरीकों को अपना रहे हैं लेकिन अपने पारम्परिक तौर तरीकों को भी नहीं छोड़ रहे हैं।
पुराने और नए का यह अनूठा संगम सबसे ज्यादा विवाह जैसे मांगलिक प्रसंगों में देखने को मिलता है। टीका, मिलणी, पीठी, बाजोट-बिछावन, फेरा, सीख आदि रस्में राजस्थान की अपनी खास रस्में हैं और अलग-अलग जातियों में थोड़ी-थोड़ी भिन्नता के साथ अब भी इनका निर्वाह किया जाता है।
खान-पान सम्बंधी रीति-रिवाज
राजस्थान की अपनी विशिष्ट भौगोलिक स्थितियों के कारण यहां का खान-पान भी विशिष्ट रहा है। हरियाली की कमी ने यहाँ के खान-पान को भी बहुत प्रभावित किया और हरी सब्जी के विकल्प वाली सब्जियां जैसे केर साँगरी वगैरह यहां की खास पहचान बनीं। मक्का, बाजरी का प्रचलन यहां इनकी सुलभता की वजह से अधिक हुआ। समय परिवर्तन के साथ देश और दुनिया के दूसरे हिस्सों के व्यंजन तो हमारे यहां आए, लेकिन सुखद बात यह रही कि हमारी अपनी जो विशेषताएँ थीं, वे भी बनी रहीं। न केवल बनी रहीं, उन्हें विस्तार भी मिला। आज राजस्थान की दाल-बाटी केवल राजस्थान तक सीमित न रहकर पूरे देश में लोकप्रिय है। केर साँगरी पंच सितारा होटलों तक की शान बन चुकी है।
वेषभूषा
वेशभूषा का सीधा सम्बन्ध भौगोलिक स्थितियों अर्थात जलवायु और संसाधनों की उपलब्धता से होता है। ठण्डी जलवायु और गर्म जलवायु वाले स्थानों की वेशभूषा एक-सी नहीं हो सकती। वेशभूषा को संसाधनों की उपलब्धता भी प्रभावित करती है। तीसरा प्रभाव जो वेशभूषा पर होता है वह है बाह्य संसर्ग का। किसी स्थान के लोग अगर अन्य स्थानों के लोगों के अधिक सम्पर्क में आते हैं तो वे वेशभूषा विषयक प्रभाव भी अधिक ग्रहण करते हैं। लेकिन यह स्मरण रखा जाना आवश्यक है कि प्रभाव वेशभूषा के मूल स्वरूप को नहीं बदलते हैं। राजस्थान के निवासियों की वेशभूषाओं के अनेक अध्ययन हुए हैं और यह जानना बहुत रुचिकर होगा कि कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान में सूती वस्त्रों के उपयोग के प्रमाण मिलते हैं। खुदाई में रुई कातने के चक्र और तकली का मिलना यह प्रमाणित करता है कि उस युग में रुई से बने वस्त्रों का प्रयोग होता था। बाद में गुप्तोत्तरकाल से 15 वीं शताब्दी तक के मंदिरों में भी तत्कालीन वेशभूषा के अनेक रोचक प्रमाण मिलते हैं। उन्हीं से ज्ञात होता है कि पुरुषों में गोलाकार मोटी पगड़ी पहनने का रिवाज़ था। मुगलकाल में हमारी वेशभूषा में काफी बदलाव आए, लेकिन पगड़ी आन-बान और शान का प्रतीक बनी रही। राजस्थान में कई किस्म और शैली की पगड़ियां देखने को मिलती हैं, जैसे अटपटी, अमरशाही, उदेशाही, बँजरशाही, शिवशाही, विजयशाही और शाहजहानी। अलग-अलग पेशे के लोगों की पगड़ियां भी भिन्नता लिए हुए होती थी जैसे सुनार आंटे वाली पगड़ी पहनते थे तो बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी पहनते थे। पगड़ियों में मौसम के अनुसार भी बदलाव होते थे। श्रावण में लहरिया काम में आता था तो होली पर फूल पत्ती की छपाई वाली पगड़ी पहनी जाती थी। मोठड़े की पगड़ी ब्याह शादी के अवसर पर पहनी जाती थी। पगड़ी को चमकीली बनाने के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी, धुगधुगी, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच आदि का इस्तेमाल होता था। राजस्थान की वेशभूषा में पगड़ी का स्थान बहुत महत्वपूर्ण रहा है। आज भी जब गौरव की रक्षा की बात होती है तो पगड़ी की लाज के रूप में उसे अभिव्यक्त किया जाता है। प्राचीन संस्कृति से अनुराग रखने वाले लोग आज भी बिना पगड़ी घर से बाहर नहीं निकलते हैं, और जो लोग इसे त्याग चुके हैं वे भी मांगलिक औपचारिक अवसरों पर इसका प्रयोग करना नहीं भूलते हैं। तेज़ धूप से रक्षा करने में इसकी जो उपादेयता रही होगी उसे स्मरण कर पगड़ी का एक संबंध राजस्थान की उष्ण जलवायु से भी जोड़ा जा सकता है।
जिस तरह पुरुषों के परिधानों के अनेक प्रमाण सुलभ हैं उसी तरह स्त्रियों की वेशभूषा के प्रमाण भी मिलते हैं। प्रारम्भिक मध्यकाल में स्त्रियां एक विशेष तरह का अधोवस्त्र पहनने लगी जो अब राजस्थान में घाघरा नाम से जाना जाता है। स्त्रियों की वेशभूषा में अलंकरण छपाई और कसीदे का काम भी पूर्व मध्यकाल तक आते-आते प्रचलित हो गया था। वेशभूषा का वह स्वरूप राजस्थान की घुमक्कड़ जाति की और आदिवासी स्त्रियों की वेशभूषा में आज भी देखा जा सकता है। प्रारम्भ में जो अधोवस्त्र कमर में लपेटा जाता था वही कालान्तर में घाघरा और घेरदार कलियों वाला घाघरा बना। ऊपर पहने जाने वाले वस्त्रों में कुर्ती विशेष रूप से उल्लेखनीय है। मारवाड़ में आज भी इसका प्रचलन है। साड़ियों के कई नाम और रूप राजस्थान में प्रचलित हैं जैसे चोल, निचोल, पट, दुकूल, चीर-पटोरी, चोरसो, ओढनी, चून्दड़ी आदि। चून्दड़ी और लहरिया तो राजस्थान की खास साड़ियां हैं और आज भी लोकप्रिय हैं।
अब जबकि वेश विन्यास के मामले में और विशेषतः पुरुष वेशभूषा के मामले लगभग पूरे भारत ने पश्चिमी वेशभूषा को अपना लिया है, पैंट कमीज सर्व स्वीकृत पोशक बन गई है, तब भी राजस्थान का बन्द गला या जोधपुरी अलग से अपनी जगह बनाए हुए है। औपचारिक अवसरों पर राजस्थानी साफा अपनी अलग ही छटा प्रस्तुत करता है। और इसी तरह भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय स्त्री परिधान साडी या सलवार कमीज़ को अपना लेने के बाद भी राजस्थानी स्त्रियाँ विशेष अवसरों पर अपनी पारम्परिक वेशभूषा में सजने का मोह नहीं त्याग पाती हैं, यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। राजस्थान की वेशभूषा का गहन अध्ययन करने वाले अनेक विद्वानों का ध्यान इस तरफ गए बगैर नहीं रह सका है कि राजस्थान का अधिकांश हिस्सा रेगिस्तान है, मटमैला और धूसर, जबकि यहाँ की वेशभूषा बहु रंगी है। राजस्थान के वस्त्रों में सबसे अधिक प्रधानता लाल रंग की है। और लाल रंग भी एक तरह का नहीं, उसके अनेक भेदोपभेद। राजस्थान का यह कथन तो सभी ने सुना है। मारू थारे देश में उपजै तीन रतन, इक ढोला, दूजी मारवण, तीजौ कसूमल रंग ।कसूमल अर्थात लाल । रंगों की विपुलता को इस तरह से व्याख्यायित किया गया है कि राजस्थान का मनुष्य अपनी धरती की रंगविहीनता की क्षति पूर्ति अपने पहनावे के रंगों से करता है। हो सकता है कि यह बात बहुत प्रमाण पुष्ट न हो, किन्तु विचारणीय तो है ही। इसी सन्दर्भ में एक और बात यह भी कि राजस्थान की अनेक नदियों में ऐसे रासायनिक तत्व हैं जो रंगाई-छपाई के लिए अनुकूल सिद्ध होते हैं। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए, वेशभूषा की बात करते हुए राजस्थान के वस्त्र उद्योग की कुछ विशेषताओं का भी उल्लेख कर लिया जाना उचित होगा।
राजस्थान में रंगाई का काम करने वालों को रंगरेज या नीलगर कहा जाता है। ये लोग मुख्यतः पगड़ियां, साफे, ओढनी आदि रंगते हैं। रंगाई का भी एक विशेष तरीका है बद्ध या बंधेज। इस बंधेज तकनीक में चुनरी के बन्धेज सबसे अधिक लोकप्रिय हैं। चुनरी और वो भी बंधेज की, राजस्थान के जन-जीवन का अभिन्न अंग है। चुनरी में अनेक प्रकार के अभिप्राय बनते हैं जैसे पशु, पक्षी, फूल और पत्ती। पशुओं में हाथी और पक्षियों में मोर बहुत लोकप्रिय है। बंधेज के अतिरिक्त राजस्थानी रंगाई में पोमचा और लहरिया भी बहुत लोकप्रिय हैं। पोमचा का सम्बन्ध पद्म अर्थात कमल से है। यह प्रकार सिर्फ ओढनी रंगने में प्रयुक्त होता है। कमल के फूल के अभिप्राय वाली ओढनी पोमचा कहलाती है। यह मुख्यतः दो तरह की होती है, लाल गुलाबी, और लाल पीली। पोमचा शिशु जन्म पर नव प्रसूता के लिए उसके मातृ पक्ष की तरफ से आता है। बेटे के जन्म पर पीला पोमचा और बेटी के जन्म पर गुलाबी पोमचा देने की प्रथा है।
इसी प्रकार लहरिया राजस्थान में बहुत लोकप्रिय है। श्रावण में राजस्थान की स्त्रियां लहरिया की ओढनी और पुरुष लहरिया की पगड़ी पहनते हैं। श्रावण में भाई अपनी बहन के लिए और पति पत्नी के लिए लहरिया उपहार स्वरूप लाता है। लहरिये एक से सात तक रंगों में रंगे जाते हैं। परन्तु क्योंकि पांच की संख्या शुभ मानी जाती है इसलिए पचरंगी लहरिये का विशेष महत्व है।
राजस्थान के बहुत सारे शहरों और कस्बों में रंगाई-छपाई का काम होता है परन्तु बालोतरा, बाड़मेर, पाली, पीपाड़, जोधपुर, बगरू, सांगानेर आदि की विशेष ख्याति है। पीपाड़, जोधपुर और पाली में बड़े और सशक्त अलंकरण छपते हैं जिनमें लाल, काले, नीले और हरे रंगों की प्रधानता होती है। बाड़मेर अजरख पद्धति से छपे कपड़ों के लिए विख्यात है। अजरख पद्धति की विशेषता है कि यह दोनों तरफ होती है, लाल और नीले रंगों में होती है और इसके अलंकरण ज्यामितीय होते हैं और काफी कुछ तुर्की शैली से मिलते-जुलते होते हैं। बगरू अपनी स्याह बैगर (काल और लाल) छपाई के लिए प्रसिद्ध है। मटिया रंग की जमीन पर लाल-काले रंगों में फूल पत्ती, पशु पक्षी और कई तरह के अलकरण यहाँ छापे जाते हैं। साँगानेर की छपाई की विशेषता आकर्षक रंगों और लयात्मक बूटियों में देखी जा सकती है। सांगानेर और बगरू के वस्त्रों की धूम अब विदेशों तक में मच चुकी है।
आभूषण
वस्त्र हमारी नग्नता को ढकने के साथ-साथ हमारे सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं तो आभूषण उस बढे हुए सौन्दर्य को और अधिक बढ़ाने का काम करते हैं। सुन्दर दिखाई देना मनुष्य मात्र के स्वभाव का अंग है, और राजस्थान के निवासी भी इस स्वभाव से अछूते नहीं हैं। स्त्रियों में सौन्दर्य की चाह कदाचित पुरुषों से थोड़ी अधिक होती है। यही कारण है कि पुरुषों के आभूषणों की तुलना में स्त्रियों के आभूषण अधिक पाए जाते हैं। राजस्थान में बहुत पुराने समय से आभूषणों के प्रयोग के प्रमाण मिलते हैं। कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग की स्त्रियां मिट्टी के और चमकीले पत्थरों के आभूषण पहनती थीं। कुछ शुंगकालीन मिट्टी के खिलौनों और फलकों से जानकारी मिलती है कि स्त्रियाँ हाथों में चूड़ियाँ और कड़े, पैरों में खड़वे और गले में लटकन वाले हार पहनती थीं। वे सोने, चान्दी, मोती और रत्नों के आभूषणों को पसन्द करती थीं। कम आर्थिक साधनों वाली स्त्रियां कांसा, पीतल, ताम्बा, कौड़ी, सीप और मूंगे के गहनों से खुद को सजाती थीं। उस युग में हाथी-दांत के आभूषणों का भी उपयोग होता था। आभूषणों की इस परम्परा और शैली का निर्वाह आज भी आदिवासी और जन जाति की स्त्रियों में देखा जा सकता है।
मध्यकाल तक आते-आते आभूषणों की निर्मिति में काफी बदलाव आए। तत्कालीन साहित्य और शिल्प में इसकी अनेक बानगियाँ देखी जा सकती हैं। ओसियां, नागदा, देलवाड़ा, कुम्भलगढ़ आदि की मूर्तियों में कुंडल, हार, बाजूबन्द, कंकण, नूपुर, मुद्रिका आदि के अनेक रूप और आकार-प्रकार देखने को मिलते हैं। ये आभूषण प्रकार बाद तक, वर्तमान काल तक प्रचलित हैं। कुछ प्रमुख राजस्थानी आभूषणों के बारे में यह जानना रोचक होगा कि सिर पर बांधे जाने वाले गहने को बोर, शीशफूल, रखड़ी और टिकड़ा नाम से जाना जाता था। गले में और वक्ष पर धारण किए जाने वाले आभूषणों में तुलसी, बजट्टी, हालरो, हाँसली, तिमणियाँ, पोत, चन्द्रहार, कंठमाला, हांकर, चंपकली, हंसहार, सरी, कण्ठी प्रमुख हैं। कानों में पहने जाने वाले गहनों में कर्णफूल, पीपलपत्रा, फूल झूमका, अंगोट्या, झेला, लटकन आदि और हाथों में कड़ा, कंकण, नोगरी, चांट, गजरा, चूड़ी प्रमुख थे। इसी तरह उंगलियों में बीटी, दामना, हथपान, छड़ा तथा पांवों में कड़ा, लंगर, पायल, पायजेब, घुघुरू, नूपुर, झाँझर, नेवरी आदि पहने जाते थे। नाक में नथ, वारी, कांटा, चूनी, चोप आदि और कमर में कन्दोरा, या करधनी पहने जाते थे।
पश्चिम से सम्पर्क और बाह्य दुनिया के प्रभाव से राजस्थान की स्त्रियों की आभूषण विषयक पसन्द अब ठीक वैसी नहीं रह गई है और धीरे-धीरे सब कुछ एक-सा होता जा रहा है। फिर भी मध्यकाल से चले आ रहे ये आभूषण ग्रामीण अंचलों में अब भी आज भी पहने जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में इनके स्वरूप में कम और शहरी क्षेत्रों में अधिक बदलाव आया है। राजस्थान में पुरुष भी अनेक प्रकार के आभूषण धारण करते रहे हैं। कानों में मुरकियां, लोंग, झाले, छैलकड़ी, हाथों में बाजूबन्द, हाथ में कड़ा और उंगलियों में अंगूठी आदि पहनने का जो रिवाज़ था वो अब काफी कम हो गया है लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी ये आभूषण प्रयुक्त होते मिल जाते हैं।
आभूषण प्रिय और आभूषण समृद्ध राजस्थान में आभूषण निर्माण की भी बहुत विशिष्ट परम्परा है। जिन लोगों ने राजस्थान की राजधानी के नगर जयपुर की स्थापना की, उनके मन में आभूषणों की कितनी महत्ता थी इसका पता इस बात से भी लगता है कि उन्होंने जयपुर के प्रमुख बाज़ार का नाम जौहरी बज़ार और यहाँ की सबसे प्रमुख चौपड़ का नाम माणक चौक रखा। यहीं यह बता देना प्रासंगिक होगा कि माणक को रत्नों का सरताज माना जाता है। आज राजस्थान का यह नगर अपने आभूषणों और रत्न व्यवसाय के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है। राजस्थान के कुछ नगर अपनी विशिष्ट आभूषण निर्माण शैली के लिए भी विख्यात हैं। श्रीनाथ जी की नगरी नाथद्वारा अपने चांदी के आभूषणों के लिए विख्यात है। इन्हें धातु के बारीक तारों से बनाया जाता है और तारकशी नाम से जाना जाता है। इसी तरह प्रतापगढ़ की थेवा कला जिसमें कांच के बीच सोने का बारीक काम किया जाता है, पूरे देश में अपनी अलग पहचान रखती है।
ग्रामीण मनोरंजन
मनोरंजन जीवन का अनिवार्य अंग है। स्त्री हो या पुरुष, अमीर हो या गरीब, शहरी हो या ग्रामीण, मनोरंजन सभी करते हैं। मनोरंजन के साधन जीवन चर्या की एकरसता से मुक्ति पाने और नए संघर्षों के लिए ऊर्जा का अक्षय स्रोत होते हैं। राजस्थान के ग्रामीण मनोरंजन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बाह्य साधनों पर कम से कम निर्भर है। स्थानीय रूप से और सहजता से जो उपलब्ध हो जाता है उसी से भरपूर मनोरंजन कर लिया जाता है। ग्रामीण अंचलों में बच्चे लुका-छिपी, आंख मिचौनी, घोड़ा दड़ी, मार दड़ी और डाल कुदावणी जैसे खेलों से अपना मनोरंजन करते हैं। लटू चकरी और गोली फेंकने (कँचे) के खेल भी बच्चों में बहुत लोकप्रिय हैं। लड़कियों में चिरमी का खेल भी खेला जाता है।
घर के भीतर खेले जाने वाले खेलों में चौपड़ चौसर आदि बहुत लोकप्रिय हैं। इन्हें कपड़े की बनी बिसात पर खेला जाता है। इन खेलों में पासों या कौड़ियों को फेंक कर गोटियों को पीटा जाता है और उसी से जीत या हार का निर्णय होता है। इन खेलों को दो या चार लोग मिलकर खेलते हैं। स्त्री और पुरुष दोनों ही इन खेलों को खेलते हैं। ताश, गंजीफा, चरभर, नार-छारी और ज्ञान चौपड़ भी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों के लोकप्रिय खेल हैं। चरभर, नार-छारी और ज्ञान चौपड़ भी कौड़ियों, छोटे छोटे कंकड़ों या या इमली के बीजों से खेले जाते हैं। ये बहुत ही सरल खेल हैं जिन्हें कहीं भी, धरती पर ही अँकन करके खेल लिया जाता है।
राजस्थान के गांवों में आज भी सपेरे, कालबेलिये, मदारी, जादूगर, नट, बहुरूपिये और भाण्ड बहुत बड़े जन समुदाय का मनोरंजन करते हैं। इनमें से अधिकांश किसी भी खुली जगह में अपना मजमा लगा लेते हैं और वहां जुटी हुई भीड़ उनके कौशल से मुग्ध होती है। इनमें से कुछ ने जैसे, कालबेलिया नर्तकों ने अपनी कला को इतना मांज लिया कि वह शहरों तक जा पहुंची और फिर वहाँ की परिधि को लांघ कर विदेशों तक भी जा पहुंची। गांवों में अब भी सपेरे अपनी टोकरी में से सांप को बाहर निकाल कर और फिर बीन की धुन पर उसे नाचता हुआ दिखा कर लोगों का मनोरंजन करते हैं। लगभग साधन विहीन लगने वाले नट जब मात्र दो बांसों के बीच एक पतली-सी रस्सी बांध कर उस पर अपने करतब दिखाते हैं तो उनका कौशल हमें दांतों तले उंगली दबाने के लिए विवश कर देता है। कई बार इनके बहुत छोटे बच्चे भी हैरत अंगेज करतब दिखा कर हमें आश्चर्य चकित करते हैं। बड़े शहरों में जादू का खेल चाहे कितना भी हाई टेक क्यों न हो गया हो, हमारे गांवों के जादूगर अब भी अपने सीमित साधनों और सादगीपूर्ण किन्तु अविश्वसनीय लगने वाले करतबों और हाथ की सफाई से लोगों का मनोरंजन करते हैं। बहुरूपिये भी नित नए वेश बदल कर, कभी सिपाही तो कभी साधु बनकर लोगों का मनोरंजन करते हैं। इन सभी मनोरंजन करने वालों के काम में एक समान बात यह देखने को मिलती है कि इनका पूरा भरोसा अपने कौशल पर होता है, जबकि शहरी मनोरंजन बहुत कुछ सहायक उपकरणों पर आधारित होने लगा है।
राजस्थान के आदिवासी अंचलों में धनुष बाण भी मनोरंजन का एक प्रमुख साधन रहा है और कालान्तर में कई लोगों ने इसमें इतनी अधिक निपुणता भी अर्जित कर ली कि उन्हें बड़े खेल पुरस्कार तक मिल गए। इसी तरह ग्रामीण अंचलों में द्वन्द्व युद्ध, कुश्ती और दंगल भी मनोरंजन के मुख्य साधन के रूप में लोकप्रिय रहे हैं। कुश्ती में केवल उनका ही मनोरंजन नहीं होता है जो इसमें भाग लेते हैं, उनका भी मनोरंजन होता है जो मात्र दर्शक होते हैं। ग्रामीण कुश्ती शहर में जाकर और परिष्कृत हो गई और इसकी अनेक शैलियाँ विकसित हो गई।
पतंगबाजी भी राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में मनोरंजन का एक प्रमुख साधन है। प्रान्त के अलग-अलग हिस्सों में विशेष पर्यों के साथ भी इसका सम्बन्ध जुड़ गया है, जैसे उदयपुर क्षेत्र में निर्जला एकादशी को तो जयपुर क्षेत्र में मकर संक्रान्ति को पतंगबाजी के लिहाज़ से विशेष महत्व मिल गया है। लेकिन इन पर्वो के अतिरिक्त भी जब मन चाहे पतंग उड़ाकर मनोरंजन करना राजस्थान के ग्रामीण जन-जीवन का प्रिय शौक रहा है। पतंग के साथ अब धीरे-धीरे बहुत सारी शहरी चीजें भी जुड़ने लगी हैं। पतंगबाजी की बड़ी स्पर्धाएं होने लगी हैं, और पतंग उड़ाने का सामान्य उल्लास अब काइट फेस्टिवल की चकाचौंध तक भी जा पहुंचा है।
राजस्थान के ग्रामीण मनोरंजन की चर्चा अधूरी रहेगी, यदि हम यहाँ के कठपुतली के खेल और लोक नाट्य और संगीत नृत्य का जिक्र नहीं करेंगे। मनोरंजन के आधुनिक साधनों के वर्तमान हमले से पहले तक, अर्थात कुछ वर्ष पहले तक राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में कठपुतली का खेल मनोरंजन का एक अत्यधिक लोकप्रिय माध्यम था। गांव के समर्थ लोग रात के समय अपनी चौपाल पर लालटेन की मद्धिम रोशनी में कठपुतली का खेल करवाया करते थे। कठपुतली नचाने वाले कलाकार अपनी टोलियां बनाकर गांव-गांव घूमा करते थे। ये लोग कठपुतली का खेल दिखाने के साथ ही नाचते गाते भी थे। लेकिन जैसे-जैसे मनोरंजन के अन्य साधन आते गए, यह कला लुप्त होती गई। बाद में इस कला ने शहरों में अपने लिए जगह तलाश की। उदयपुर के भारतीय लोक कला मंडल ने कठपुतली कला के प्रदर्शन के क्षेत्र में खूब नाम कमाया। विभिन्न सरकारी विभागों ने भी अपनी योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिए इस कला का सहारा लिया। यह आशा ही की जा सकती है कि कठपुतली के अच्छे दिन कभी फिर से लौटेंगे।
राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में लोक नाट्य की बहुत समृद्ध परंपरा रही है और प्रसन्नता की बात है कि किसी न किसी तरह यह परंपरा अभी भी जीवित है। राजस्थान के सुपरिचित नाटककार हमीदुल्ला ने लोक नाट्यों की दृष्टि से राजस्थान को तीन क्षेत्रों में बांटा है:
- उदयपुर, डूंगरपुर, कोटा, झालावाड़ और सिरोही के पर्वतीय क्षेत्र
- जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर और जैसलमेर के रेगिस्तानी क्षेत्र
- राजस्थान का पूर्वांचल जिसमें शेखावाटी, जयपुर, अलवर, भरतपुर और धौलपुर का क्षेत्र शामिल है।
सामुदायिक मनोरंजन की दृष्टि से पर्वतीय क्षेत्र बहुत समृद्ध है। इस क्षेत्र के निवासी अधिकाशतः भील, मीणा, बनजारे, सहरिया और गिरासिया हैं। इन लोगों का सहज स्वाभाविक परिवेश है। प्राकृतिक देवी देवताओं पर इनकी अटूट आस्था होती है। इनके नृत्य एवं नाट्यों में जीवन्तता एवं उन्मुक्तता होती हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों में मनोरंजन का काम सरगड़ा, नट, मिरासी, भाट और भाण्ड नामक जातियों के पेशेवर कलाकार करते हैं। ये लोग स्वांग. लोक नाट्य को नये समय की आवश्यकताओं के अनरूप बदल कर पेश करने की कला में निपुण हैं। इनके संवादों में हास्य और व्यंग्य का गहरा पुट होता है। राजस्थान का पूर्वाचल और उसमें भी शेखावाटी का इलाका ख्याल की पारम्परिक लोक नाट्य शैली के लिए विख्यात है।
राजस्थान के लोक नाट्य के कुछ प्रमुख रूप हैं: ख्याल, हेला, गवरी, रम्मत, तमाशा, स्वांग, फड़, लीला, नौटंकी, भवाई, भोपा आदि। ख्याल के भी अनेक भेद हैं जिनमें कुचामणी ख्याल, शेखावाटी ख्याल, तुर्रा कलंगी ख्याल मुख्य हैं।
संगीत राजस्थान के लोक जीवन के मनोरंजन का एक प्रमुख साधन रहा है। राजस्थान में बहुत सारी जातियाँ ऐसी रही हैं जिनकी आजीविका का प्रमुख स्रोत उनकी गायन क्षमता ही थी। ऐसी जातियों में ढोली, मिरासी, लंगा, ढाढी, कलावन्त, राव, जोगी, कामड़, बैरागी, मांगणियार आदि के नाम लिए जा सकते हैं। अन्य बहुत सारे लोगों के साथ-साथ इन जातियों के कलाकारों ने राजस्थान के लोक जीवन को अपने संगीत से सदा ही आहलादित किया है। यहां के लोक वाद्य जिनमें रावणहत्था, एकतारा, तन्दूरा, तम्बूरा, सतारा, निशान, अलगोजा, टोटो, पूंगी, मशक, नड़, मोरचंग, कंजरी, चंग, डफ, नगाड़ा, नौबत आदि प्रमुख हैं अलग से पहचाने जाते हैं। राजस्थान के कुछ प्रमुख लोक नृत्य हैं तेरहताली, कच्छी घोड़ी, घूमर, गैर, पाँचपदा, जसनाथियों का अग्नि नृत्य आदि।
राजस्थान के इन लोक मनोरंजन के सभी साधनों की एक बड़ी विशेषता तो यह है कि इनका सीधा सम्बन्ध यहां के लोक जीवन से है, और यह स्वाभाविक भी है। ये सभी साधन नितान्त सहज, स्वाभाविक, अकृत्रिम और प्रकृति से निकटता रखने वाले हैं। इनमें से कुछ साधन प्रान्त की सीमाओं को लांघ कर देश और विदेश में भी अपनी धाक जमा चुके हैं तो बहुत सारे साधन अब क्रमशः लुप्त होते जा रहे हैं।