पन्ना धाय

पन्ना धाय

राजस्थान में ही नहीं अपितु भारतीय संस्कृति में पन्ना धाय का नाम मातृत्व, बलिदान, साहस एवं वात्सल्य का प्रतीक बन गया है। पन्ना धाय समर्पण एवं त्याग की प्रतिमूर्ति थी। महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद मेवाड़ में अस्थिरता रही । सांगा के बाद रतनसिंह शासक बना लेकिन सन् 1531 में उसकी मृत्यु हो गई। उसके बाद विक्रमादित्य मेवाड़ का शासक बना लेकिन राजा व उसकी मां हाड़ी रानी कर्मवती के व्यवहार से मेवाड़ के सामन्त व जनता असंतुष्ट थी।

बहादुरशाह के आक्रमण के कारण भी मेवाड़ को अपार जनधन की हानि उठानी पड़ी। सांगा के भाई पृथ्वीराज के औरस पुत्र बनवीर ने सन् 1536 में विक्रमादित्य की हत्या करके मेवाड़ के सिंहासन पर अधिकार कर लिया। वह विक्रमादित्य के छोटे भाई बालक उदयसिंह की भी हत्या करके निश्चिन्त हो राज्य भोगना चाहता था।

पन्ना उदयसिंह की धात्री माँ थी और कर्मवती के जौहर के बाद उदयसिंह की सार-सम्भाल की जिम्मेदारी पन्ना धाय पर आ गई थी। उदयसिंह मेवाड़ का भावी उत्तराधिकारी था। अतः बनवीर इस उत्तराधिकारी को भी समाप्त करके अपने राज्य को सुरक्षित करना चाहता था लेकिन पन्ना धाय एक वीरांगना थी। अतः उसने स्वामीभक्ति के अनुकरणीय लगन से उदयसिंह की रक्षा की। उदयसिंह की आयु का ही पन्नाधाय का पुत्र चन्दन था। पन्ना धाय का आवास चित्तौड़ के किले में कुम्भा महल में था। पन्ना धाय को जब जनाना खाने से चीखें निकलती सुनाई दी तो वह समझ गई कि रक्त पिपासु बनवीर हत्या के उद्देश्य से उदयसिंह को तलाश रहा है। उसने तुरंत बालक उदयसिंह को एक टोकरी में सुलाकर उसे पत्तियों से ढंक कर अपने विश्वस्त नौकर को उसे सुरक्षित महलों से बाहर निकालने का दायित्व सौंपा। राजसी वस्त्र पहनकर अपने पुत्र चन्दन को उदयसिंह के पलंग पर सुला दिया। सत्ता लोलुप बनवीर के आते ही पन्ना धाय ने अपने पुत्र की तरफ हाथ से संकेत कर दिया । बनवीर ने तलवार से पन्ना धाय के बालक को उदयसिंह समझकर हत्या कर दी। नन्हें बालक के शव का पन्ना ने तुरंत अंतिम संस्कार कर दिया और स्वयं बालक उदयसिंह एवं स्वामीभक्त सेवक के पास पहुँचकर देवलिया के जागीदार रामसिंह के पास पहुंची। वहाँ उसे पूरा सम्मान मिला। वहाँ से उदयसिंह को वह सुरक्षित स्थान कुम्भलगढ़ ले गयी। किलेदार आशा देपुरा का भांजा बनकर उदयसिंह वहां बड़ा हुआ।

पन्नाधाय द्वारा किये गये इस बलिदान जैसे बलिदान का उदाहरण कहीं पर भी देखने को नहीं मिलता। पन्ना धाय के इस अविस्मरणीय बलिदान के कारण ही उसी दिन से पन्नाधाय को मेवाड़ की वीरांगना के रूप में सम्मान मिल रहा हैं।

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