ग-तरंग-उमंग के साथ होली। इसमें अनूठी लोक परम्पराओं, मान्यताओं व रीति-रिवाजों का मेल । त्योहार एक, लेकिन लोक परम्पराओं के साथ हर क्षेत्र की अलग फाल्गुनी बयार । कुछ ऐसी ही अनूठी परम्पराओं के रंगों में घुली है वागड़ की होली । वागड़ के बांसवाड़ाव डूंगरपुर में होली से जुड़ी कई प्रथाएं व परम्पराएं हैं, जिनका अभी तक लोग पूरे उत्साह के साथ निर्वहन कर रहे हैं। पत्थर, टमाटर व कण्डों की होली के साथ जब ढोल व नगाड़ों की थाप पड़ती है तो नजारा अलग ही दिखता है। गेरियों की धूम के साथ ही फाल्गुनी मस्ती माहौल को आनन्दमयी कर देती है। अलग-अलग परम्पराएं रोचकता के साथ ही एक विशेष संदेश भी देती है। आपसी सौहार्द, भाईचारा व जुड़ाव भी इनसे बढ़ता है।
भीलूडा में पत्थरों की राड़ : डूंगरपुर के भीलूड़ा गांव में धुलंडी के दिन परम्परागत रूप से पत्थरों की राड़ खेली जाती है। इसे देखने दूरदराज के क्षेत्रों से लोगों का हुजूम उमड़ता है। गांव के प्रसिद्ध रघुनाथजी मंदिर के पास खाली भू-भाग धुलंडी के दिन शाम को लोगों की टोलियां दो समूहों में आमने-सामने होकर एक-दूसरे पर पत्थरों की बौछार करती है। जोश व उत्साह के साथ रस्सी से बने गोफण से लगभग दो घण्टों तक एक-दूसरे पर पत्थरों की वर्षा की जाती है। इस दौरान पत्थरों से बचने के लिए प्राचीन समय से बनी ढाल से प्रयास होता है। ढोल-नगाड़ों के साथ ही ‘हो ह ह रिया’ की गगनभेदी आवाज भी गूंजती रहती है।
शादी के बाद फिर शादी : बांसवाड़ा के ठीकरिया गांव में वर्षों से यह अनूठी परम्परा चल रही है। शादी के बाद पहली संतान होने पर पति-पत्नी की होली के दूसरे दिन धुलंडी की शाम को शादी की रस्म दोहराई जाती है। नवजात के माता-पिता के साथ धुलंडी के दिन ग्रामीण पानी से होली खेलते हैं। इसके बाद होली चौक पर सभी ग्रामीण एकत्रित होते हैं और जिन युगल के पहली संतान हुई हो वे दूल्हा-दुल्हन के वेश में आते हैं। यहां से उनका बिनौला निकाला जाता है। ढोल-ढमाकों के साथ पूरे गांव में प्रदक्षिणा की जाती है। इसमें गांव की सभी महिलाएं मंगल गीत गाते हुए चलती हैं। चौराहे पर बुआ टीका की रस्म निभाती है। इसके बाद पारम्परिक लोक नृत्य का आयोजन होता है। इस अनूठी परम्परा के माध्यम से नवयुगल को गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों से रूबरू कराया जाता है।
कंडों की राड़ : धुलंडी के बाद से लगातार पांच दिनों तक सागवाड़ा नगर, गलियाकोट तथा आसपास के गांवों में कंडों की राड़ खेली जाती है। इसमें एक-दूसरे पर कंडों की बौछार करते हैं। कुछ ही दूरी पर खड़े रहकर खेलते हुए ढाल का सहारा भी नहीं लेते हैं । ढोल की थाप बढ़ने के साथ ही लोगों का उत्साह भी बढ़ता जाता है। यह दीगर बात है कि इस दौरान कई लोग चोटिल भी हो जाते हैं।
टमाटर की राड़ जैसा नाम से जाहिर है कि इसमें टमाटरों से होली खेली जाती है। एक-दूसरे पर टमाटर फेंकने की होड़ सी रहती है। होली के रंग में रंगे गेरिए एक-दूसरे को चुन-चुन कर टमाटर मारते हैं। टमाटर की मार से बचते बचाते खेलने वालों का उत्साह देखते ही बनता है। एक को टमाटर लगते ही माहौल में चीत्कार सी गूंज उठती है। पूरी सड़क टमाटर के गूदे, छिलके तथा लाल रंग से सराबोर हो उठती है।
दहकते अंगारों पर चलते हैं : कोकापुर में होलिका दहन के दूसरे दिन पवित्र होली के दहकते अंगारों पर चलकर आस्था व श्रद्धा का प्रदर्शन पीढ़ी दर पीढ़ी जारी है। इस परम्परा का निर्वहन ग्रामवासियों की आस्था व श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। होली चौक पर सैकड़ों ग्रामवासियों की उपस्थिति में होलिका माता के जयकारों के बीच दहकते अंगारों पर तीन कदम चलकर लोगों को उत्सुकता के साथ कुछ लोग आह्लादित कर देते हैं। इसके पीछे लोगों की मान्यता है कि ऐसा करने से पूरे वर्ष निरोगी रहते हैं।
अग्नि को प्रज्वलित करने का तरीका निराला : कानपुर (सागवाड़ा) के ग्रामीण सामूहिक रूप से होलिका दहन कर पुरातन संस्कृति को बचाए रखे हुए हैं। गांव में निवास करने वाले सभी जाति के लोग आपसी भाईचारे एवं पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही सामूहिक होलिका दहन की संस्कृति को बनाए रखते हुए सामाजिक एकता का परिचय दे रहे हैं। होलिका दहन की अग्नि को प्रज्वलित करने के लिए पीपल की लकड़ी की पट्टी पर एक से पांच छिद्र कर उसे जमीन पर तिरछी रखते हैं। फिर कण्डों का बुरादा रख छिद्रों पर पुआंड़ियों को खड़ा कर हाथ से बार-बार घुमा आग उत्पन्न की जाती है।
नादिया में पेरहणियां’ नृत्य : धुलंडी के बाद विशेषकर रंग पंचमी के दिन नादिया गांव में ग्रामीणों द्वारा ‘पेरहणियां’ नुत्य खेला जाता है। प्रमुख चौराहे पर आदिवासी युवक-युवतियों द्वारा खेले जाने वाले इस लोक नृत्य का नजारा देखते ही बनता है। लोग समूह में रंग, अबीर और गुलाल उड़ाते फागुन के पारम्परिक गीत गाते हुए पूरी मस्ती और उमंग के साथ भाग लेते हैं। उत्साह व जोश के बीच ढोल व नगाड़ों की गूंज के साथ ‘पेरहणियां’ खेलते हुए वातावरण में मस्ती बिखेर देते हैं।
फुतरा प्रथा : ओबरी कस्बे की फुतरा प्रथा भी शौर्य व साहस की संवाहक है। ओबरी में होली के बाद रंग पंचमी पर गांव के सबसे ऊंचे खजूर पर कपड़ा बांधा जाता है, इसे फुतरा कहते हैं । युवाओं में उस फुतरे को उतारने की होड़ मचती है। ढोल नगाड़ों की थाप व रंगों के बीच जो युवक उसे उतारने में सफल होता है, उसे गांव का सबसे वीर पुरुष मानते हुए सम्मानित किया जाता है।
उल्लास व शौर्य के प्रतीक गेर नृत्य : होली पर जनजाति अंचल का परंपरागत गेर नृत्य मुख्य आकर्षण रहता है। ढोल की थाप पर आदिवासी युवक-युवतियां हाथों में डंडे, तलवारें तथा लेजम लेकर उल्लास के साथ झूमते हैं। होली के बाद करीब 10 दिनों तक गेर नृत्य के आयोजन जिले भर में चलते रहते हैं, इसमें बड़ी संख्या में लोग शिरकत करते हैं। पंचमी को गेर नृत्य के दौरान त्रिपुरा सुंदरी माता के मंदिर परिसर में भी ढोल की थाप व धुंघरू की झनकार से माहौल गुंजायमान हो जाता है। हजारों की संख्या में पुरुष व महिलाएं इसमें शामिल होती हैं। इस दौरान फाग गीत पूरी फाल्गुनी मस्ती घोलते हैं। लोग रंग-बिरंगे कपड़ों में यहां आते हैं।
ढूंढोत्सव में विवाहोत्सव सा उल्लास : वागड़ अंचल में दंपत्ती के प्रथम शिशु का ढूंदोत्सव मनाया जाता है। यह उत्सव भी परिवार में विवाहोत्सव से कमतर नहीं होता । अलग-अलग समाजों व स्थानों में इससे जुड़ी परंपराएं भी भिन्न-भिन्न हैं। मोटे तौर पर शिशु के मामा की ओर से शिशु को नए कपड़े, आभूषण, शिशु की माँ के लिए विशेष प्रकार की साड़ी जिसे स्थानीय भाषा में ढूंढिया कहा जाता है आदि भेंट किए जाते हैं।
गेरियों की हुडदंग : धुलंडी पर लोग समूह में रंगोत्सव मनाने निकलते हैं। यह टोली गेरियों की टोली कही जाती है। गेरिये घर-घर जाकर रंग खेलते हैं तथा बदले में भेंट प्राप्त करते हैं। बाद में इसी भेंट से सामूहिक गोठ की जाती है।