जल प्रबंधन

राजस्थान में परंपरागत जल प्रबंधन

राजस्थान में परंपरागत जल प्रबंधन | प्राचीन काल से जल प्रबन्धन की परम्परा प्रचलित हैं। हड़प्पा नगर की खुदाई में जल संचयन प्रबन्धन व्यवस्था की जानकारी मिलती है। प्राचीन अभिलेखों से भी जल प्रबन्धन का ज्ञान होता है। पूर्व मध्यकाल और मध्यकाल में भी जल सरंक्षण परम्परा विकसित थी। पौराणिक ग्रन्थों तथा जैन बौद्ध साहित्य में नहरों, तालाबों, बाधों, कुओं और झीलों का विवरण मिलता है।

“घी ढुले म्हारो की नी जासी, पानी ढुले म्हारो जी बले”

जल के महत्व को दर्शाने वाली इसी लोकोक्ति को लेकर जल संरक्षण हेतु विभिन्न तरीकों से प्रयास किए जा रहे हैं। भारत में जल प्रबन्धन प्रणालियाँ वहाँ के भौगोलिक परिवेश के अनुसार विकसित हई है। जैसे राराजस्थान में परंपरागत जल प्रबंधन, वर्षा जल से किया जाता है। राजस्थान में लोगों द्वारा पानी के कृत्रिम स्रोतों का निर्माण किया गया है। जिन्हे पारम्परिक जल प्रबन्धन कहते हैं। ये तरीके आज के तकनीकी युग में भी उतने ही प्रासंगिक हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस लेख में किया जा रहा है

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राजस्थान में परंपरागत जल प्रबंधन : झीलें

यह परंपरागत जल प्रबंधन की सबसे प्रचलित विधि है। इन्हें राजा, सेठों, बंजारों तथा जनता द्वारा बनाया गया है। इनका प्रयोग सिंचाई और पेयजल दोनों में होता है। राजसमंद, आनासागर आदि प्रसिद्ध कृत्रिम झीलें हैं। विस्तार से पढ़े – राजस्थान की झीलें

नाड़ी

नाड़ी

जल प्रबंधन की यह विधि पश्चिम राजस्थान विशेष रूप से जोधपुर में प्रचलित हैं। नाड़ी का प्रथम उदाहरण राव जोधा द्वारा निर्मित नाड़ी है। जिसका निर्माण सन 1520 में करवाया गया था। नाड़ी जमीन पर बना एक गड्ढा होता है जिसमें वर्षा जल संगृहीत होता है इस जल को पालरपाणी कहा जाता है यह 3 से 12 मीटर तक गहरी होती है। इनमें वर्षाजल हेतु आगौर(पायतान) बनाया जाता है। इसे उसका कैचमेन्ट एरिया कह सकते हैं। नाड़ी या तालाब में जल आने हेतु निर्धारित जमीन की सीमा को मदार कहते हैं इसमे मल-मूत्र त्याग निषिद्ध होता है। अतिरिक्त जल की निकासी के लिए नेहटा(नेष्टा) बनाया जाता है ताकि वह जल निकट की दूसरी नाड़ी या तालाब में चला जाए। जलोढ़ मृदा वाले क्षेत्रों में इनका आकर बड़ा होता है। केंद्रीय शुष्क अनुसन्धान संस्थान, जोधपुर के एक सर्वे के अनुसार नागौर, बाड़मेर व जैसलमेर में पानी की कुल आवश्यकता का 37.06 प्रतिशत नाड़ी द्वारा पूरा किया जाता है। नाड़ी को देश भर में अनेक नाम से जाना जाता है:

  • अलवर एवं भरतपुर जिलों में इसे ‘जोहड़’ कहते है।
  • बीकानेर, गंगानगर, बाड़मेर एवं जैसलमेर में ‘सर’ कहते हैं।
  • जोधपुर में ‘नाड़ा’-‘नाड़ी’
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश में ‘पोखर’ कहते हैं।

राजस्थान में परंपरागत जल प्रबंधन : बावड़ी(वापी)

बावडी़

बावडी़ सीढ़ीयुक्त गहरी संरचना होती है। राजस्थान में इसका निर्माण प्राचीनकाल से होता आ रहा हैजिनका वर्णन कई ग्रंथो में मिलता है। अपराजितपृच्छा ग्रन्थ में बावडियों के चार प्रकार बताये गये है है। मेघदूत में बावड़ी निर्माण का उल्लेख मिलता है। अधिकांश बावडियाँ मन्दिरों, किलो या मठों के नजदीक बनाई जाती थी। प्रमुख बावड़ीयाँ :

  • आभानेरी की चांद बावड़ी(हर्षद माता मन्दिर)
  • राजस्थान के बूंदी को बावड़ियों का शहर भी कहा जाता है।
  • गुजरात के पाटन में रानी की वाव (बावड़ी)- इसे यूनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है। इसका चित्र 100 रुपये के नोट पर अंकित है।

टांका(कुंड)

टांका

राजस्थान के मरुस्थलीय ग्रामीण क्षेत्रों में वर्षाजल को संग्रहित करने के लिए कुंड निर्मित किये जाते है। जिन्हे टांका भी कहते हैं। इसमें संग्रहीत जल का उपयोग मुख्य रूप से पेयजल के लिये किया जाता हैं। यह एक प्रकार का छोटा भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढँक दिया जाता है। इनकी गहराई करीब 40 से 50 फुट तक होती है। जयगढ़ दुर्ग में विशालकाय टांके निर्मित है।

टोबा

टोबा

जल प्रबन्धन की इस विधि में आकृति नाडी के समान होती है। किन्तु गहराई व अगोरा उससे अधिक होती है। सघन संरचना वाली भूमि जिसमे पानी का रिसाव कम होता है उसे टोबा निर्माण के लिए उपयुक्त माना जाता है | इसके जल का उपयोग मानव व मवेशियों द्वारा किया जाता है। इसके आसपास नमी होने से जानवरों हेतु घास उग आती है। एक टोबा पर 20 परिवार निर्भर रह सकते हैं। समय समय पर इसे खुदाई करके गहरा किया जाता है।

खड़ीन

खड़ीन

खड़ीन का प्रचलन 15वी शताब्दी में जैसलमेर के पालीवाल ब्राह्मणों ने किया था। यह ढाल युक्त भूमि पर दो तरफ मिट्टी की दीवार(पाल) और तीसरी तरफ पक्का अवरोध बनाकर निर्मित की जाती है। पाल 2 से 4 मीटर लंबी होती है। खड़ीन का विस्तार 5 से 7 किलोमीटर तक होता है। खड़ीन के लिए जमीन राजा उपलब्ध कराता था जिसपर एक चौथाई लगान देना होता था। पानी अधिक होने पर अगली खड़ीन में चला जाता है। पानी सूखने पर खडीन की भूमि में नमी के आधार पर फसलें उगाई जाती है। इस तकनीक से बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया जा सकता है। मरू क्षेत्र में इन्हीं परिस्थितियों में गेहूँ की फसल उगाई जाती है। जिस स्थान पर पानी एकत्रित होता है उसे खडीन तथा इसे रोकने वाले बांध को खडीन बांध कहते हैं। खडीनों के नीचे ढलान में कुआं भी बनाया जाता है जिसमें खडीन से रिस कर पानी आता रहता है, जो पीने के उपयोग में आता है।

तालाब

तालाब में वर्षा का पानी को एकत्रित किया जाता है। यह पेयजल, सिंचाई और धार्मिक कार्यों हेतु बनाए जाते हैं। पुराने तालाबों के समीप कुआं भी होता था। प्रमुख तालाब:

  1. सवाईमाधोपुर(रणथम्भौर) – सुखसागर तालाब, कालासागर तालाब, जंगली तालाब
  2. पाली – हेमावास, दांतीवाडा़, मुथाना तालाब।
  3. भीलवाडा – सरेरी, खारी, मेजा तालाब।
  4. उदयपुर – बागोलिया तालाब।
  5. चित्तौड़गढ़ – पद्मीनी तालाब, वानकिया, मुरालिया, सेनापानी तालाब।
  6. बूंदी – कीर्ति मोरी, बरडा, हिण्डोली तालाब।
  7. भरतपुर – पार्वती, बारेठा तालाब।
  8. जैसलमेर – गढ़सीसर तालाब।
  9. डूंगरपुर – एडवर्ड सागर।
  10. प्रतापगढ़ – रायपुर, गंधेर, खेरोट, घोटार्सी, ढ़लमु, अचलपुर, जाजली, अचलावदा, सांखथली, तथा तेजसागर तालाब

राजस्थान में परंपरागत जल प्रबंधन : झालरा

झालरा

झालरा का स्वयं का आगोर नहीं होता है ये अपने से ऊँचे तालाबों या झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। ये आयताकार होते है जिसके तीन ओर सीढियां बनी होती है। इनका जल पीने के स्थान पर स्नान अथवा धार्मिक रिवाजों हेतु काम आता था। प्रमुख झालरा – 1660 ई. में, निर्मित जोधपुर का महामंदिर झालरा।

कुई या बेरी

कुई या बेरी सामान्यतः तालाब के समीप बनाते हैं। जिसमें तालाब का जल रिसता हुआ एकत्रित होता है। यह 30 से 40 फीट गहरी होती है। पश्चिम राजस्थान में इनका काफी प्रचलन है। खेत में भी मेड़ ऊंची करके बेरी बनाकर जल संचय किया जाता है।

वर्षा जल संरक्षण से सम्बंधित शब्दावली

  • आगौर (पायतान) – वर्षा जल को नाड़ी या तालाब में उतारने के लिए उसके चारों ओर मिट्टी को दबाकर आगोर (पायतान) बनाया जाता है।
  • टांका – वर्षाजल एकत्रित करने के लिए बनाया गया हौद।
  • नाडी – छोटी तलैया जिसमें वर्षा का जल भरा जाता है।
  • नेहटा (नेष्टा) – नाडी या तालाब से अतिरिक्त जल की निकासी के लिए उसके साथ नेहटा बनाया जाता है जिससे होकर अतिरिक्त जल निकट स्थित दूसरी नाड़ी, तालाब या खेत में चला जाये।
  • पालर पाणी – नाडी या टांके में जमा वर्षा का जल।
  • बावड़ी – वापिका, वापी, कर्कन्धु, शकन्धु आदि नामों से उद्बोधित। पश्चिमी राजस्थान में इस तरह के कुएं (बावडी) खोदने की परम्परा ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग शक जाति अपने साथ लेकर आई थी। जोधपुर व भीनमान में आज भी 700-800 ई. में निर्मित बावडियां मौजूद है।
  • बेरी – छोटा कुआं, कुईयां, जो पश्चिमी राजस्थान में निर्मित हैं।
  • मदार – नाडी या तालाब में जल आने के लिए निर्धारित की गई, धरती की सीमा को मदार कहते हैं। मदार की सीमा में मल-मूत्र त्याग वर्जित होता है।

वर्तमान में  बड़े – बड़े बांधो, नहरी तंत्र, सरकारी उदासीनता और समाज की उपेक्षा के कारण परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियों की स्थिति विकट हो गयी है। आज भी इनकी उतनी ही आवश्यकता है क्युकि इनकी निर्माण और रख- रखाव लागत कम होती है और ये पर्यावरण के अनुकूल भी है। इसलिए राजीव गांधी जल संचय योजना में इनका जीर्णोद्धार का कार्य भी शामिल किया गया है।

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