पंचायती राज का इतिहास

पंचायती राज का इतिहास

भारत के प्राचीनकाल, मध्यकाल एवं आधुनिककालीन इतिहास में किसी न किसी रूप में स्थानीय स्वशासन की पंचायती राज व्यवस्था के अवशेष मिलते हैं। पंचायत हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति की पहचान है। यह हमारी गहन सूझ-बूझ के आधार पर व्यवस्था निर्माण करने की क्षमता की परिचायक है। यह हमारे समाज में स्वाभाविक रूप से समाहित स्वावलम्बन, आत्मनिर्भरता एवं संपूर्ण स्वतंत्रता के प्रति निष्ठा व लगाव का द्योतक है। इस लेख में पंचायती राज का इतिहास बताया गया है।

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वैदिक काल में पंचायती राज :

प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में पंचायत शब्द का उल्लेख मिलता है। जिसका आशय है पाँच प्रबुद्ध लोगों का समूह जिन्हें पंच-परमेश्वर कहा गया। ऋग्वेद में सभा, समिति एवं विदाथा के रूप में गांव की स्व शासन संस्थाओं का उल्लेख मिलता है। जो स्थानीय स्तर के लोकतांत्रिक निकाय थे। वैदिक काल में गांव प्रशासन की बुनियादी इकाई थी। इसमें समिति, जो कि वैदिक लोक विधानसभा थी कुछ मामलो में राजा का चुनाव कर सकती थी और सभा न्यायिक कार्यों में अपना योगदान देती थी।

महाभारत काल में पंचायती राज:

रामायण एवं महाभारत काल में स्थानीय प्रशासन पुर एवं जनपद नामक दो स्तरों पर विभाजित था। महाभारत के शान्तिपर्व में भी जनपदों के ग्राम स्वशासन और पंचायतों के निर्वाचन और गठन का उल्लेख किया गया है।

  • उस समय पंचायत अधिकारियों में पुरोहित, सभापति और ग्रामीणी और ग्राम योजक प्रमुख हुआ करते थे, ग्रामीणी ही पंचायत का मुखिया होता था।
  • गांव के शासक प्रशासक के रूप में ग्राम योजक का चुनाव ग्रामसभा के मार्फत होता था। गांव से जुड़े मसले सुलझाने का दायित्व ग्रामयोजक का ही होता था।

प्राचीन काल में पंचायती राज:

मौर्य काल में चाणक्य द्वारा लिखित प्रसिद्ध ग्रंथ अर्थशास्त्र में स्वशासन की इकाई ग्राम, पंचायत एवं गावों के समूह का उल्लेख किया गया है।

मुगलकाल में पंचायती राज :

सल्तनत काल में प्रशासन की सबसे छोटी इकाई गांव ही थी। इसमें गांवो का प्रबन्धन लम्बरदारों, पटवारियों और चौकीदारों के जिम्मे होता था। इसी प्रकार मुगल काल में कई गांवों से मिलकर परगना बनता था। इस समय गांव की शासन व्यवस्था सुगठित थी। पंचायत के पंच के रूप में पांच व्यक्तियों को चुनने के लिए भी एक निश्चित मापदंड था। वे गांव के ऐसे पांच प्रतिष्ठित व्यक्ति होते थे, जो अपने अलग-अलग गुणों के लिए जाने जाते थे। वे पांच गुणों वाले व्यक्ति थे-सोच-समझकर काम करने वाले, दूसरों की रक्षा में हमेशा आगे आने वाले, किसी भी काम को व्यवस्थित ढंग से करने वाले, किसी भी शारीरिक श्रम वाले काम में अधिक रुचि रखने वाले तथा राग द्वेष त्यागकर परोपकारी संन्यासी की तरह जीना पसंद करते थे।

ऐसे पांच अलग-अलग गुणों वाले वरिष्ठ व्यक्तियों को समाज में आदरभाव से देखा जाता था। ये पंचायत के रूप में गाँव में रहने वाले लोगों के बीच का मतभेद दूर करने, गांव की रक्षा, गांव का विकास, समुदायपरक समाधान निकलते जो सबको मान्य होता। यह अनौपचारिक लेकिन असरकारक प्रणाली मुगलों के शासनकाल तक अनवरत चलती रही। परन्तु अंग्रेजों के आते ही इसमें रुकावट आने लगी। उन्हें इसके स्वायत्त इकाई का स्वरूप बिल्कुल अनुकूल नहीं लगा। अतः इसके साथ उन्होंने छेड़छाड़ शुरू कर दी।

ब्रिटिश काल में पंचायती राज

गर्वनर जनरल मेटकाफ का कथन : – भारतीय ग्राम समुदाय छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जो पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं और अपने लिए सभी आवश्यक सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं। ये सभी प्रकार के बाहरी दबावों से मुक्त हैं।

1786 में ब्रिटिश पार्लियामेंट के सदस्य लार्ड वर्क उस समय भारत के गर्वनर जनरल वॉरेन हेस्टिंग्स के विरुद्ध भारत में गांव की परंपरागत एवं मजबूत व्यवस्था को तोड़ने का महाभियोग प्रस्ताव ले आए। आगे चलकर इसी गांव-स्तर की पंचायत व्यवस्था के विषय में
1830 में तत्कालीन गर्वनर जनरल मेटकाफ ने गांव-स्तर की पंचायत व्यवस्था के विषय में ब्रिटिश पार्लियामेंट की जो रिपोर्ट भेजी थी उसमें लिखा, ‘भारतीय ग्राम समुदाय छोटे-छोटे गणराज्य हैं, जो पूरी तरह आत्मनिर्भर हैं और अपने लिए सभी आवश्यक सामग्री की व्यवस्था कर लेते हैं। ये सभी प्रकार के बाहरी दबावों से मुक्त हैं।’ इनके अधिकारों और प्रबंधों पर कभी कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ। एक के बाद एक साम्राज्य आते गए, क्रांतियां एवं परिवर्तन हुए पर हिन्दुस्तानी ग्राम-समुदाय की पंचायती व्यवस्था उसी तरह बनी रही।
भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड मेयो को प्रशासनिक दक्षता लाने के लिए शक्तियों के विकेन्द्रीकरण की ज़रूरत महसूस हुई तो वर्ष 1870 में शहरी नगर पालिकाओं में निर्वाचित प्रतिनिधियों की अवधारणा शुरू हुई।

बंगाल चौकीदार अधिनियम 1870 में पंचायती राज :
बंगाल में पारंपरिक गांव पंचायती प्रणाली की शुरुआत 1870 के बंगाल चौकीदार अधिनियम में हुई। इस चौकीदार अधिनियम ने जिला मजिस्ट्रेट को गांवों में मनोनीत सदस्यों की पंचायत स्थापित करने के लिए सशक्त किया।

रिपन रेजोल्युशन 1882 में पंचायती राज :
ब्रिटिशकाल में 1880 से 1884 के मध्य लार्ड रिपन का कार्यकाल पंचायती राज का स्वर्णकाल माना जाता है। वर्ष 1882 में उन्होंने स्थानीय स्वशासन सम्बंधी प्रस्ताव देकर स्थानीय निकायों को बढ़ावा देने का कार्य किया। इसीलिए लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। स्थानीय सरकारों के विकास में 18 मई 1882 एक अहम दिन साबित हुआ। इसने बहुमत में निर्वाचित गैरसरकारी सदस्यों का एक स्थानीय बोर्ड प्रदान किया जिसकी अध्यक्षता एक गैर सरकारी अध्यक्ष को सौंपी गयी। इसे भारत में स्थानीय लोकतंत्र का मैग्ना कार्टा माना जाता है।

मोंटेगू-चेम्सफोर्ड 1919 एवं भारत सरकार अधिनियम 1935 के सुधारों के दौरान पंचायती राज :
मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड 1919 के अनुसार जितनी हो सके स्थानीय निकायों को ज्यादा से ज्यादा स्वतंत्रता मिलनी चाहिए तथा इसके बाद 1925 तक आठ प्रांतों ने ग्राम पंचायत एक्ट पारित कर दिया। भारत सरकार अधिनियम (1935) ब्रिटिश काल में पंचायतों के विकास में एक और महत्वपूर्ण मंच के रूप में माना जाता है। हालांकि ब्रिटिश सरकार गांव स्वायत्तता के हित में नहीं थी, लेकिन वो भारत में अपने शासन जारी रखने के लिए ऐसा करने के लिए मजबूर थी तथा इसके अलावा वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए भी इसका अस्तित्व में होना जरूरी था।

स्वतंत्र भारत में पंचायती राज

आजादी के बाद पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने का कार्य भारत सरकार पर आ गया। भारत एक गाँवों का देश है इसमें लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए ग्राम पंचायतों को मज़बूत करना आवश्यक था | ग्रामीण विकास को गति देने के लिए और इसमें लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत की गई। इस कार्यक्रम के सहयोग के लिए 1953 में राष्ट्रीय विस्तार सेवा की शुरुआत की गई।

जनवरी 1957 में भारत सरकार ने इसी सामुदायिक विकास कार्यक्रम 1952 तथा राष्ट्रीय विस्तार सेवा 1953 द्वारा किए कार्यों की जांच और उनके बेहतर ढंग से कार्य करने के लिए उपाय सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया। इस समिति के अध्यक्ष बलवंत राय मेहता थे। समिति ने नवम्बर 1957 को अपनी रिपोर्ट सौंपी और लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की योजना की सिफ़ारिश की जो की अंतिम रूप से पंचायती राज के रूप में जाना गया।

पंचायती राज से संबंधित विभिन्न समितियां :

  • बलवंत राय मेहता समिति (1956-57)
  • अशोक मेहता समिति (1977-78)
  • जी. वी. के. राव समिति (1985)
  • डॉ. एल एम सिन्धवी समिति (1986)
  • पी के थुगन समिति (1988)

बलवंतराय मेहता समिति

सन 1957 में स्थापित की गयी बलवंतराय मेहता समिति स्वतंत्र भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण की समस्याओं पर गौर करने के लिए पहली समिति थी। लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण और ग्रामीण पुनर्निमाण की दिशा में इसने काफी काम किया तथा 1 अप्रेल 1958 को इसके सिफारिशें प्रभाव में आईं |

  • त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति की स्थापना की जानी चाहिए।
    • गाँव स्तर पर ग्राम पंचायत
    • ब्लॉक स्तर पर पंचायत समिति और
    • जिला स्तर पर जिला परिषद
  • ग्राम पंचायत का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से चुने प्रतिनिधियों द्वारा, जबकि पंचायत समिति एवं जिला परिषद का गठन अप्रत्यक्ष रूप से चुने सदस्यों द्वारा होनी चाहिए।
  • योजना और विकास की सभी गतिविधियाँ इन निकायों को सौंपे जाने चाहिए तथा अपने कार्यों और जिम्मेदारियों को संपादित करने हेतु पर्याप्त वित्तीय साधन भी उपलब्ध कराने चाहिए।
  • पंचायत समिति की भूमिका कार्यकारी निकाय तथा जिला परिषद की सलाहकारी, समन्वयकारी और पर्यवेक्षण निकाय के रूप में होनी चाहिए।
  • जिला परिषद का अध्यक्ष, जिलाधिकारी होना चाहिए।

समिति की इन सिफ़ारिशों को राष्ट्रीय विकास परिषद (एन.डी.सी.) द्वारा स्वीकार किया गया। लेकिन परिषद ने कोई एक निश्चित फ़ारमैट तैयार नहीं किया और इसे राज्यों पर छोड़ दिया कि वे जिस तरह से इसे चाहे लागू करें। 1960 के दशक में अधिकांश राज्यों ने इस योजना को प्रारम्भ किया और पंचायती राज संस्थाएं स्थापित भी की। किन्तु केंद्र सरकार द्वारा इसका कोई निश्चित ढांचा नहीं बनाये जाने के कारण राज्यों ने इसे अपने-अपने तरीके से लागू कर दिया। राजस्थान ने त्रिस्तरीय पद्धति अपनाई, तमिलनाडु ने द्विस्तरीय पद्धति अपनाई और पश्चिमी बंगाल ने चार स्तरीय पद्धति अपनाई।

अशोक मेहता समिति

अशोक मेहता समिति का गठन जनता पार्टी की सरकार द्वारा दिसम्बर, 1977 ई. में अशोक मेहता की अध्यक्षता में किया गया था। इस समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को सौंपी जिसमें पंचायती राज व्यवस्था का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया गया। समिति द्वारा दी गई रिपोर्ट में केवल 132 सिफ़ारिशें की गयी थीं।इनमे से कुछ मुख्य सिफारिशें निम्न है :

  • त्रिस्तरीय पंचायती राज पद्धति को द्विस्तरीय पद्धति में बदलना जिसमें ग्राम पंचायत तथा पंचायत समिति को समाप्त कर जिला परिषद् एवं मण्डल पंचायत नामक दो स्तर होंगे। जिला स्तर पर जिला परिषद, और उससे नीचे मण्डल पंचायत (15 – 20 हजार जनसंख्या के लिए एक मण्डल पंचायत का गठन होगा)
  • राज्य में जिले को विकेंद्रीकरण का प्रथम स्तर माना जाना चाहिए |
  • जिला परिषद कार्यकारी निकाय होना चाहिए और जिला स्तर के नियोजन के लिए जिले को ही जवाबदेही बनाया जाए।
  • पंचायती राज संस्थाओं के पास कर लगाने की अनिवार्य शक्ति हो।
  • न्याय पंचायत को इन पंचायत से अलग निकाय के रूप में रखा जाये तथा इनका एक प्रमुख न्यायाधीश द्वारा सभापतित्व किया जाना चाहिए।

जी.वी.के. राव समिति

योजना आयोग द्वारा 25 मार्च 1985 में ग्रामीण विकास एवं गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम की समीक्षा करने हेतु जी. वी. के. राव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। पंचायती राज की निष्क्रियता के कारण उन्होंने इसे “बिना जड़ का घास” की संज्ञा दी तथा पंचायती राज पद्धति को मजबूत और पुनर्जीवित करने हेतु विभिन्न सिफ़ारिशें की इनमे से कुछ मुख्य सिफारिशें निम्न है :

  • जिला स्तर पर विषेश रूप से विकेन्द्रीयकरण किया जाना चाहिए। कार्य सम्पादन के लिए जिला परिषदों की विभिन्न समितियाँ गठित की जानी चाहिए। जिला परिषद को उन सभी विकास कार्यक्रमों के प्रबंधन के लिए मुख्य निकाय बनाया जाना चाहिए जो उस स्तर पर संचालित किए जा सकते है।
  • जिला परिषद के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में कार्य करने हेतु सभी विकास विभागों के प्रभारीपं के रूप में जिला विकास आयुक्त का पद स्थापित करने की अनुशंसा की गई।
  • पंचायती राज संस्थाओं में नियमित निर्वाचन होने चाहिए।

एल.एम. सिंघवी समिति

1986 में लोकतंत्र व विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनरुद्धार पर एक अवधारणा पत्र तैयार करने हेतु राजीव गांधी सरकार ने एल. एम. सिंघवी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इसमें निम्न सिफ़ारिश दी :

  • पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक रूप से मान्यता देने की सिफारिश की साथ ही पंचायती राज विकास के नियमित स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव करने के संवैधानिक उपबंध बनाने की सलाह भी दी।
  • गाँव के समूह के लिए न्याय पंचायतों की स्थापना की की जानी चाहिए।
  • ग्राम पंचायतों को अधिक व्यवहारिक बनाने हेतु गाँव का पुनर्गठन किया जाना चाहिए तथा इसने ग्राम सभा की महत्ता पर भी ज़ोर दिया।
  • गाँव की पंचायतों को ज्यादा वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराये जाने चाहिए।

पी. के. थुंगन समिति

1988 में पी. के. थुंगन की अध्यक्षता में संसद की सलाहकार समिति की एक उप समिति पी. के. थुंगन समिति राजनीतिक और प्रशासनिक ढांचे की जांच करने के उद्देश्य से गठित की गई। इस समिति में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए सुझाव दिया। इस समिति की अनुशंसाएँ निम्न :

  • इस समिति ने भी पंचायती राज्य संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता की बात कही।
  • इन्होने गाँव ब्लॉक तथा जिला स्तर पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज पद्धति को उपयुक्त बताया।

पंचायतीराज दिवस : 24 अप्रैल
भारतीय संविधान के भाग 4 के नीति निर्देशक तत्व में अनुच्छेद-40 के तहत राज्य द्वारा पंचायतों के गठन किये जाने का प्रावधान है। अनुच्छेद 246 के माध्यम से स्थानीय स्वशासन से संबंधित किसी भी विषय के संबंध में कानून बनाने का अधिकार राज्य विधानमंडल को सौंपा गया है 73 वें संविधान संशोधन द्वारा 24 अप्रैल, 1993 को पंचायतों को संवैधानिक दर्जा देकर लागू किया गया। इसलिए वर्ष 2010 में 24 अप्रेल को पहला पंचायतीराज दिवस मनाया गया था। तब से भारत में प्रत्येक वर्ष 24 अप्रैल को राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस मनाया जाता है।

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