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Subject – भारतीय इतिहास
Topic – प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत के धार्मिक आन्दोलन और धर्म दर्शन | 19वीं तथा 20वीं शताब्दी में सामाजिक- धार्मिक सुधार आन्दोलन |
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Q1 नयनार और अलवर कौन थे?(2M)
दक्षिण भारत में शुरुआती भक्ति आंदोलनों (लगभग छठी शताब्दी) का नेतृत्व अलवार और नयनारों ने किया था। वे अपने देवताओं की प्रशंसा में तमिल में भजन गाते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करते थे। महिलाओं की उपस्थिति इन परंपराओं की सबसे खास विशेषता थी |
अलवार | नयनार |
भगवान विष्णु को समर्पित 12 अलवार की रचनाएँ → नलयिरा दिव्यप्रबंधम (“चार हजार पवित्र रचनाएँ”) महिला भक्त : अंडाल अलवार की एकमात्र महिला भक्त । श्री वैष्णव परंपरा में पूजनीय। | भगवान शिव को समर्पित 63 नयनारों के गीत तिरुमुराई का हिस्सा हैं, जो बारह खंडों का एक संग्रह है।अप्पार, संबंदर और सुंदरार की कविताएँ तेवरम का निर्माण करती हैं महिला भक्त → कराईक्कल अम्मैयार आदितमिल शैव सिद्धांत परंपरा में महत्वपूर्ण। |
Q2 स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्रवाद भारतीय आध्यात्मिकता, नैतिकता और धर्म पर आधारित था। टिप्पणी करें।(5M)
स्वामी विवेकानन्द का राष्ट्रवाद:
भारतीय अध्यात्म:
- वेदांत दर्शन पर जोर: सभी धर्मों में अंतर्निहित आध्यात्मिक एकता पर प्रकाश डालना।
- सार्वभौमिक भाईचारा: धार्मिक और राष्ट्रीय सीमाओं से परे आध्यात्मिक एकता पर जोर देना। (1893 का शिकागो सम्मेलन)
नैतिकता:
- किसी राष्ट्र के विकास में नैतिक चरित्र के महत्व पर बल दिया। उन्होंने अपने देशवासियों से स्वतंत्रता, समानता और स्वतंत्र सोच की भावना अपनाने का आह्वान किया।
- पश्चिम के भौतिकवाद और पूर्व की आध्यात्मिकता का संयोजन: नैतिक रूप से मजबूत और सामंजस्यपूर्ण समाज के लिए।
- मानवता की सेवा: रामकृष्ण मिशन के माध्यम से उन्होंने प्रचार किया कि जीव की सेवा ही शिव की पूजा है।
धर्म:
- धर्मों का सामंजस्य: उन्होंने मातृभूमि के लिए एकमात्र आशा के रूप में हिंदू धर्म और इस्लाम के मिलन का आह्वान किया।
- धर्म की स्वतंत्रता और धार्मिक बहुलवाद: उन्होंने जोर देकर कहा कि सभी धर्म एक ही अंतिम सत्य की ओर ले जाते हैं।
इस प्रकार, स्वामी विवेकानन्द की राष्ट्रवादी विचारधारा भारत की वेदांत की आध्यात्मिक विरासत, भारतीय परंपरा में नैतिकता और हिंदू धर्म और इस्लाम के सामंजस्यपूर्ण संगम की दृष्टि में गहराई से निहित थी, जो देश की प्रगति के लिए समग्र दृष्टिकोण को दर्शाती है।
Q3 मध्यकालीन भारत में भक्ति आंदोलन और आंदोलन से तुलना करें और अंतर बताएं। इन आंदोलनों ने सांस्कृतिक समन्वयवाद और धार्मिक बहुलवाद में किस प्रकार योगदान दिया?(10M)
सूफी और भक्ति आंदोलन, विभिन्न धार्मिक परंपराओं से उभरने के बावजूद, गहन भक्ति प्रेम और परमात्मा के साथ आध्यात्मिक संबंध पर वे गहन भक्तिपूर्ण प्रेम पर केंद्रित वे एक समान विषय साझा करते हैं।
समानता
- गहन भक्ति और प्रत्यक्ष व्यक्तिगत संबंध पर जोर
- समावेशिता और समानता:
- दोनों आंदोलनों ने सामाजिक समावेशिता की वकालत की और धार्मिक और सामाजिक पदानुक्रम को खारिज कर दिया।
- कबीर और रविदास जैसे भक्ति संतों ने जाति व्यवस्था को चुनौती दी, जबकि सूफी मनीषियों ने ईश्वर के समक्ष भाईचारे और समानता को बढ़ावा दिया।
- कर्मकांड की आलोचना: आध्यात्मिक सार पर ध्यान केंद्रित
- प्रसार और प्रभाव
- भक्ति आंदोलन उत्तर से दक्षिण तक भारत के विभिन्न क्षेत्रों में फैल गया और इसका भारतीय समाज और संस्कृति पर गहरा प्रभाव पड़ा।
- इसी प्रकार, सूफी आंदोलन उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में फला-फूला, जिसने न केवल मुसलमानों बल्कि हिंदुओं और अन्य धार्मिक समुदायों को भी प्रभावित किया।
अंतर:
पहलू | भक्ति आंदोलन | सूफी आंदोलन |
उत्पत्ति और संस्थापक | हिंदू भक्ति परंपराओं में निहित; अलवर और नयनार, शंकर, रामानुज, रामानंद, कबीर, रविदास और मीराबाई आदि जैसे संत | इस्लामी परंपरा के भीतर उभरा; मोइनुद्दीन चिश्ती, निज़ामुद्दीन औलिया, कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, बाबा बुल्ले शाह जैसी शख्सियतें। |
भक्ति का स्वरूप | कविता, संगीतमय भजन जैसे तेवरम, वचन (बसवना), कीर्तन (चैतन्य महाप्रभु) के माध्यम से व्यक्त किया गया | ज़ियारत पर जोर देते हुए, तरीकों में कव्वाली, ज़िक्र और समा शामिल थे |
धार्मिक संदर्भ | भक्ति व्यक्तिगत देवताओं और दिव्य प्रेम पर केंद्रित थी; द्वैत (द्वैतवाद) और अद्वैत (गैर-द्वैतवाद) दोनों के तत्वों को शामिल किया गया | सूफी ने ईश्वर की एकता और रहस्यमय मिलन पर जोर दिया; खानकाहों और सिलसिले पर ध्यान केंद्रित किया |
धार्मिक प्रसंग | हिंदू धर्म के भीतर उभरा; हिंदू प्रथाओं में सुधार और पुनरुत्थान की मांग की। | इस्लाम के भीतर उत्पन्न; ख़लीफ़ा के बढ़ते भौतिकवाद के ख़िलाफ़; कुरान की हठधर्मितापूर्ण व्याख्या की आलोचना |
मोक्ष की ओर दृष्टिकोण | पूजा के बाह्य रूपों की अपेक्षा सच्ची भक्ति पर बल दिया। | पैगंबर मोहम्मद के उदाहरण का अनुसरण करके गहन भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने पर जोर दिया गया |
सांस्कृतिक समन्वयवाद और धार्मिक बहुलवाद में योगदान
- दोनों आंदोलनों ने आपसी सम्मान को प्रोत्साहित किया और विभिन्न परंपराओं के तत्वों को मिलाकर कविता, संगीत, कला और साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया।
- अंतरधार्मिक संवाद को बढ़ावा देने, धार्मिक सहिष्णुता और सह-अस्तित्व को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- भक्ति और सूफी साहित्य ने पारंपरिक संस्कृत लेखन से हटकर स्थानीय भाषाओं में योगदान दिया।
- भक्ति: रामचरितमानस और हनुमान चालीसा (हिंदी), नानक की रचनाएँ (गुरुमुखी), चैतन्य की रचनाएँ (बंगाली) जैसी रचनाओं ने भारतीय साहित्यिक परंपराओं को समृद्ध किया। अन्य उल्लेखनीय कार्यों में कन्नड़ में बसवना द्वारा लिखित वचन संहिता, और रामानंद द्वारा लिखित ज्ञान लीला और योग-चिंतामणि (हिंदी) शामिल हैं।
- सूफी: चिश्तियों ने स्थानीय भाषा हिंदवी को अपनाया। लंबी कविताओं या मसनवियों की रचना की, बीजापुर में दखनाई में सूफ़ी कविता का उदय हुआ
- सामाजिक परिवर्तन के प्रतिनिधि: दमनकारी मानदंडों को चुनौती देना और समानता और न्याय के आदर्शों को बढ़ावा देना।
- सांस्कृतिक संलयन और आदान-प्रदान में योगदान दिया, जिससे विभिन्न धार्मिक समुदायों के बीच साझा प्रथाओं और परंपराओं को बढ़ावा मिला।
निष्कर्षतः, अपने धार्मिक मतभेदों के बावजूद, दोनों आंदोलनों ने मध्ययुगीन भारत में सांस्कृतिक समन्वयवाद और धार्मिक बहुलवाद में महत्वपूर्ण योगदान दिया, जिससे विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव और पारस्परिक सम्मान की एक स्थायी विरासत छोड़ी गई।
Q4 निम्नलिखित पंक्ति का भाव विस्तार कीजिए: (शब्द सीमा: लगभग 100 शब्द)
“होनहार बिरवान के होत चीकने पात“
जो पौधा आगे चलकर बड़ा वृक्ष होने वाला होता है, छोटा होने पर भी उसके पत्तों में कुछ-न-कुछ चिकनाई होती है अर्थात् जो होनहार होते है उनकी प्रतिभा बचपन मे ही दिखाई देने लगती है। प्रतिभा अभ्यास से नहीं उत्पन्न होती और वह धनराशि से खरीदी भी नहीं जा सकती । जीवन के सभी क्षेत्रों में अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय देने वाले महापुरुषों का जीवनवृत्त साक्षी है कि उन्होंने बचपन से ही अपनी विलक्षणता की ओर संकेत किया है ।
जो महापुरुष होते हैं, उनमें महानता के लक्षण जन्म से ही दिखाई देते हैं, क्योंकि वे जन्म से ही अपने छोटे– छोटे कार्यों से दूसरों के हृदय पर प्रभाव डालते हैं। उन कार्यों से उनमें महान् गुणों का विकास होता है। मानवीय गुणों के पारखी लोग ऐसे गुणवान जनों को समय से पूर्व ही पहचान लेते हैं।
पूत के पाँव पालने में ही सूचित कर देते हैं कि यह होनहार बिरवा आने वाले दिनों में कितने विशाल वटवृक्ष के रूप में परिणत होगा । राष्ट्र और समाज के प्रति अपनी प्रातिभ चेतना से विलक्षण योगदान देने वाले लोगों ने बचपन से ही अपनी मनोवृत्ति और क्रियाशीलता का संकेत दिया है । पत्थर पर लगातार रस्सी के घिसने से निशान अवश्य पड़ जाते हैं , लेकिन प्रतिभा का दीप प्रौढ़ावस्था में नहीं प्रज्वलित होता । बचपन की गतिविधियों में किसी भी व्यक्ति की भावी जीवनयात्रा का पूर्वाभास परिलक्षित होता है ।